प्रकृति और जीवन.

आसमान में बादल फिरता ,मोर नाचता बन में।

थिरक -थिरक कर मनवां नाचे,भरता यौवन हर जनमें।

ठंढ़ कंपाती है हर जन को ,पवन जुल्म बरपाता है।

फिर भी बादल उमड़-घुमड़,मदमस्ती बन छाता है।।

पेड़ों पर बैठ गये पक्षी, अपने जोड़े संग खोंतों में ।

चिहुक-चिहुक कर मग्नप्रेम में,खो गये अपनी बातों में।

चातक,मोर ,पपीहा बनमें,फुदक फुदक कुछ बोल रहे।

मानों फिक्र नहीं मौसम का,कर प्रदर्शित उपहास रहे।।

अबलों को खूब सताते सब,सबलों कोनहीं सता पाती।

जो डरते उन्हें डराती दुनियां,निडरों को नहीं डरा पाती।

जो भिड़ने की रखता हिम्मत,निर्भीक बनाजो रहता है।

रहती दुनियां हैं डरी हुई, आघात न उनपर होता है।।

यह नियम पुराना है प्रकृतिका,कोई भला तोड़भी पायेगा।

जो अपनी रक्षा करे नहीं,कर उसे और क्या पायेगा??

परिस्थितियों से संघर्ष करे, क्षमता मानव पायी है।

सोंच समझ कर प्रकृति ने ,यह मानव जीव बनाई है।।

अतः जरूरत नहीं उसे,डरने को क्रूर थपेड़ों से ।

सर्दी-गर्मी की प्रकोपों ,झंझा की क्रूर प्रहारों से ।।

सौरमंडलमें जबतक अपनी,अवनी सूरजमेंचाल रहेगा।

मौसम आयेगा क्रमिक,दिन-रात भी आये जायेगा।।

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