दुनियाॅ बनाने वाले , क्या दुनियाॅ बनाई तूॅने ।
कितने करीने से इसे , जमकर सजाई तुमने।।
कितने गगन को छूते ,पर्वत बनाई तूॅने।
छोटे -बड़े बिटप से , बन को सजाई तूॅने।।
कल -कल ध्वनी है करती , बहती है नदियां तेरी।
ब्याकुल सजन से मिलने , में हो रही क्या देरी ??
कितना बड़ा सा तुमने , बनाया गजब समंदर।
है आगार रत्नो से भरा ,संजोये अपने अन्दर ।।
अनेकानेक जीव-जंतु , तुमने ही तो बनाया।
उस जीव जंतुओं में, मानव जीव भी बनाया ।।
विकसित बना के मस्तिष्क , तुमने बनाया मानव।
मकसद न जाने क्या रख , तुमने रचा था मानव।।
मकसद तुम्हारा जो था , क्या पूर्ण यह किया है?
या तेरे बनाये मकसद , से ही भटक गया है ??
भटका अगर है पथ से, पथ पर उसे चढ़ा दो।
सारे पथिक को अपने , राहों से ही चला दो ।।
पथ पर ही चढ़ गया तो, गण्तब्य तय है मिलना।
कुछ देर भी अगर हो , निश्चित है पर पहुॅचना ।।
गुण तो भरे हैं काफी , अवगुण भी कुछ दिया है।
अवगुण ही हावी होकर ,सद्गगुण को दबा दिया है।।
बस चेतना जगा दें , अवगुण को ही भगा दें ।
निश्चित करेगा पूरा , जो कर्म उसे मिला है ।।