जब आदमी से आदमी ही, खौफ खाने लग गया।
हिंसक जानवर से अधिक,हिंसक आदमी ही बन गया।
घृणित अब कामज्यादा आदमी काजानवर से हो गया।
‘बड़ा भाग्य मानुष तन पावा”अब मजाक बन रहगया।
अब लूट ही तो आदमी, दिन-रात करता रह गया ।
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा,इनके सेल्टर बना रह गया।।
ये सारी आस्था की चीज उनका,बन खिलौना रह गया।
मठाधीश फुलाये तोंद अपना,जमींदार बनकर आगया।
जिसको जहां मौका मिला,सब लूटने में लग गया।
थोड़े बचे कुछ मूढ़ होगें,जो मौके से वंचित रह गया ।।
है कौन शत्रु,कौन हितैषी,समझना भी मुश्किलह़ो गया।
मुखौटे बदलने में प्रवीण,हर आदमी ही बन गया।।
इस रोग का निदान की ,दवा भी अब बची कहां ?
जो बनी सबे खत्म हो गये,डुप्लीकेट केवल रह गया।।
शैतान की शैतानियत से, शैतान भी अब डर गया।
अपनी ही बनाई’भायरस’से,अब स्वयं मरने लग गया।।
गैरों के घर के सामने,कुआं खोदने में लग गया ।
स्वयं ही आकर उसी में, गिरना शुरू भी कर दिया ।।
इन शैतान को शैतानियत की,देती दंड सदा ही प्रकृति।
फिर भी पतित इन्सान इतना,जो बात को ठुकरा दिया।
किस्से ,कहानीमें कभी थे, लोमड़ी को धूर्त कहते ।
अब लोमड़ी को छोड़ पीछे, इन्सान आगे बढ़ गया।।
कहते काक भी तो काक का, मांस को खाता नहीं।
पर आदमी तो आदमी का , मांस खाता रह गया।।
सारे जीव की उदंडता, आकर इसी में घुस गया ।।
जीवों में अजीब यह जीव मानव ,इस धरापर रह गया।