मानवता का प्रवल शत्रु, सोचो तुमने क्या किया?
धरा के सारे मानवों पर , कहर कैसा वरपा दिया ??
बुद्ध का अनुयायी हो तुम , लोग कहते बात यह ।
पर कर्म तो विपरीत तेरा, तुमने किया जो कर्म यह।।
जो शिष्य होता बुद्ध का ,ऐसा कर्म कर सकता नहीं।
मानवता का प्रवल शत्रु , बन कभी सकता नहीं ।।
मानव भीहो सकता नहीं तूं,मानव का तूं है रूप केवल।
जिसने जना होगा तुझे,हो रो रहा कहीं बैठ केवल।।
पश्चाताप केवल कर सकेगा,क्या और कुछ करपायेगा?
आंसू बहाने के सिवा ,अब और क्या कर पायेगा ।।
जीवित अगर मां-बाप होगें,आजतक गर इस धा पर।
झुकी होगी आज ग्रीवा,तनय के कर्मो देख कर ।।
तूं मानवता का प्रवल शत्रु,स्वयं अपने आप का भी ।
जैसा किया कूकर्म तुमने,सोंचा न कोई आजतक भी।।
कुकर्म जितने भी हुए हों,इस मही पर आज तक ।
तुम सा भयावह कूकर्म कोई,किया न होगा आजतक।
कलंक बन तूं जन्म लिया, शर्मसार तुमसे है धरा ।
ऐ निकृष्ट तुम जन्में न होते , निश्चिंत रहती यह धरा ।।
है बची थोड़ी हया भी ,तो आत्महत्या स्वयं कर ले ।
मनहूस सूरत ले यहां से , नरक को प्रयाण कर ले ।।
विश्व भर से बददुआ , तुमको मिला निकृष्ट प्राणी ।
तुम सा अधम इस विश्व में, कोई दूसरा होगा न प्राणी।।