बहुत सा राज है रहता.

गगन में ही चमकता चांद,ऐसा कौन कहता है?

घूंघट में सिमट एक चांद, बैठा कौन रहता है??

गगन का चांद का चेहरा, कभी घटता है बढ़ता है।

घूंघट में छिपा जो चांद, सदा ही एक रहता है।।

आती रोशनी जो आसमां से ,बादल छिपा लेता कभी।

लेकर उसे आगोश में , लुप्त कर देता कभी ।।

घूंघट में जो रहता चांद , वह बिंदास रहता है ।

दुपट्टे से छिपा मुखड़ा , करता सदा उपहास रहता है।।

मुकाबला उस चांद का, उस चांद से करना ही क्या ?

खुदा खुद ही रचा हाथों ,वहतो महज पाषाण रहता है।

अनोखा चांद घूंघट का , कला सारी लगा अपनी।

रचयिता जो रचा रचकर, अचंभित स्वयं रहता है।।

भरोसा खुद नहीं खुद पर,सदा संदेह रहता है ।

कैसे कब बना डाला , स्वयं पर गर्व रहता है ।।

नियंता तुम रचे दोनो, करिश्मा भी तुम्हारी है ।

हुस्न तेरा दिया ही है ,लगी सब कुछ ही तेरी है।।

कभी तुम क्या बना देते, समझ से जो पड़े होते ।

बना जब जी तेरा भरता, उसे खुद ही मिटा देते ।।

हुस्न तुम ही बनाया है , उसे तुम ही मिटाओगे।

हमें है देखना केवल, जो कुछ तुम दिखाओगे ।।

जिज्ञासा बनी रहती , करिश्मा को समझ पाऊं।

बनाने और मिटाने का ,तेरा मकसद समझ जाऊं।।

पर आशां नही लगता ,बातों को समझ पाना ।

बहुत राज है उनका , राजों को समझ जाना ।।

नियति का खेल निरंतर चलता.

बिन मौसम बरसात न अच्छी,लगती कभी किसीको।

समय,परिवेशानुकुल ही,भाता सब कुछ,सब ही को ।।

 

खुशी ब्यक्तका अलग तरीका,गमका अलग हुआ करता

जश्न मनाते लोग खुशी में,गम में जश्न नहीं मनता।।

 

जय की खुशियों जयकार लगाते, शंखनाद भी होता ।

पर कभी पराजय या कोई गममें,नहीं कभी ऐसा होता।

 

समयानुसार ही सब कुछ अच्छा,भोर भैरवी ही भाता।

राग अनेकों,पर मल्हार तो,बारिश को ले है ले आता।।

 

यों मौसम तो अन्य कयी , पर बसंत सबों को भाता ।

कोयल की कूक तो मन मानसमें, रंग नया भर देता ।।

 

फूल बिछे होते अवनी पर,यह समां बसंत ला देता ।

भवंरों की गुंजार कुसुम को, आह्लादित कर देता ।।

 

हर मौसम रंग अपना लेकर, अवनी पर है आता ।

अपना अपना रंग दिखाता,और चला खुद जाता ।।

 

जाड़ा ,गर्मी, बारिश सब ही , नियत समय पर आते ।

अपना गुण दिखला लोगों पर,स्वत:चले भी जाते ।।

यही नियति का खेल निरंतर,जग में चलता रहता।

नियत समय से सारा मौसम, आता जाता रहता।।

जहां समय में गड़बड़ होता, होता दुखदाई है।

कष्ट सभी जीवों को होता ,न होता सुखदाई है।।

मौसम तो सब ही अच्छे, भारतवर्ष में अपना ।

देव तरसते जो ज्ञानी हो, लें पुनर्जन्म यहीं अपना।।

 

 

 

 

 

कैसे किसे सुनाऊं

दर्द दिल का अपना , कैसे किसे सुनाऊं ?

बेचैनियों का आलम , दिल का किसे बताऊं??

छलनी हुआ सा जाता , कैसे किसे दिखाऊं ?

घायल है दिल बेचारा , कैसे कह सुनाऊं ??

उनकी कठोर बातें , चोट दिल को देती ।

बददुआ न दिल से , फिरभी निकाल पाऊं।।

कुछ बददुआयें उनकी , मेरे लिए निकलती ।

थोड़ी झलक भी उसमें, पर प्यार का भी पाऊं।।

बददुआ को उनकी ,दिल में बिठा न पाऊं ।

चाहे कहे वो कुछ भी , पर प्यार उनमें पाऊं।।

बन कर दवा ये कड़वी , मेरी दर्द दिल का हरती ।

बददुआ को उनकी , मैं कह भी कैसे पाऊं ।।

दर्द दिल का अपना , कैसे किसे सुनाऊं ……..

क्या चीज़ तूं बनाई.

कितने नजारे भर कर , दुनिया है ये बनाई ।

दुनिया बनाने वाले , क्या चीज़ तूं बनाई ।।

पर्वत ये कितना ऊंचा ,बाहर बड़ा समंदर ।

रत्नों का क्या खजाना , उनमें भरे हैं अंदर ।।

जलचर विचित्र उनमें , विचरण सदा है करता ।

विभिन्न जीव जन्तु, अम्बार इसमें रहता ।।

कितना बड़ा खजाना , जल जीव जंतुओं का ।

जीवन जो सब को देता, जल जो सचर अचर का।।

अनेकों विचित्र चीजें , दुनियां को दी है तूने ?

ऐ प्रकृति बता दे , जिसको रची न तूने ??

रचकर न तूने छोड़ी , ढ़ब से उसे चलाती ।

रचना बहुत ही थोड़ी , मेरी समझ में आती ।।

जब से बनी है दुनियां,मानव को तब बनायी ।

सारे जीवों में उत्तम , ज्ञानी से बनाई ।।

जाने तुझे क्या सूझी , कुछ गंदगी बनाई ।

उनमें किसी को थोड़ा ,किसी को पूर्णतः डुबोई।।

दुर्बल बहुत से हो गये , इस गन्दगी के कारण ।

रखा जो काबू खुद पर ,उसका हुआ निवारण।।

ऐ प्रकृति सम्हालो , अब सृजना को अपनी ।

बिगड़ी सबों की प्रकृति , बिगड़ेगी और कितनी ‌।।

अब तो इन्हें सम्हालो , हद पार कर गयी है ।

कर देर अब न थोड़ी , हालातें बिगड़ गयी है।।

अभिलाषा.

अभिलाषा होती अनंत, पर पूर्ण सभी क्या हो पाती?

मानव मन का मात्र उपज, शायद कोई पूरा हो जाती।।

मानव मन का देन है यह , यहीं पैदा लेती है ।

फलती , फुलती यहीं सदा , और यहीं पलती है।।

इच्छायें जागृत होती , मन उद्वेलित हो जाता ।

मस्तिष्क फिर पूरा करने का, धुन में है लग जाता।।

कौन कौन सी चीज चाहिए, कहां मिलेगी यह सब।

कौन सकेगा पूर्ण इसे कर ,इसे सोचना पड़ता है सब।।

कितनें पापड़ बेले जाते, पूर्ण तभी हो पाता ।

पूरी होती जब अभिलाषा,सुकून मन को मिल पाता।।

पर कहां सुकून यह बहुत दिनों तक,मन को है दे पाता।

अगली अभिलाषा जागृतहो,मस्तिष्क उसमेंलग जाता।

सिलसिला यही चलता रहता ,अभिलाषा बढ़ती जाती।

पूर्ण-अपूर्ण का द्वन्द्व सदा ही, मानव मन होती ।।

अभिलाषा होती पूर्ण उसीका,जो कर्म अथककर पाता

लगनशीलता होती जिनमें,सफल वही हो पाता ।।

अभिलाषा प्रशस्त बनाती ,जीवन का पथ आगे बढ़ता‌।

चलती दुनियां उसके पीछे, जीवन रथ बढ़ता जाता ।।

क्रम यही रहा है बढ़ने का,बढ़ कर लोग यहांतक आये।

पर कुछ विकृत मस्तिष्क वाले,भी इसमें घुस आये ।।

बुरा बुराई कहां छोड़ता,तुम्बाफेरी तो कर ही लेता ।

अच्छों में मिलकर उनको भी, कुछ गंदा कर ही देता।।

जिन्दगी स्वप्न एक.

जिन्दगी स्वप्न है , इस स्वप्न का भरोसा कितना ?

एक खटका ही काफी है ,टूटने केलिए,दमही कितना?

निस्सार है जिन्दगी ये ,मोह क्यों करना इतना?

दिया जिसने है जो ,ले ले भी तो क्यों गम करना??

मैं तो एक बुत हूं , पर हूं ,चलता फिरता ।

गढा हो जिसने मुझे, नचाये वो चाहे जितना ।।

जाने मकसद भी क्या , तुझको मुझे बनाने का?

पर करूं मैं फिक्र भी क्यूं ,ब्यर्थ में उसकी इतना??

खता तो मेरी ही , क्यूं मैं खपाऊं सर अपना?

जो भी करना है करें , मुझे है क्या करना ??

सफल वह जिंदगी.

एक दीप ही हो प्रज्वलित , प्रकाश देता है ।

घर का अंधेरा दूर कर ,रौशन बनाता है ।।

समय जब रुख बदल देता ,तो सबकुछ बदल जाता।

दीप जो रौशनी देता , वही घर को जला देता ।।

सब कुछ वही रहता , केवल वक्त बदलता है ।

चमकता हुआ दिनमान भी , कभी अस्त होता है।।

प्रचंड गरमी सूर्य की , तब लुप्त हो जाती ।

निशा की कालिमा घनघोर ,हर ओर छा जाती।।

तारे टिमटिमाते जो , जऱा कुमकुम नजर आता ।

काली निशा की चीर काली ,पर गोटा नजर आता।।

चांद की चांदनी आती , समां थोडी बदल जाती ।

उनकी ज्योत्सना काली निशा में, जान ला देती ।।

यही है वक्त का प्रभाव , जो सब कुछ बदल देता ।

क्या से क्या बना देता किसे ,समझ तक नहीं आता।।

बदलाव तो हर चीज में, आता सदा रहता ।

सजीव तो सजीव , निर्जीव भी बदल जाता ।।

नियती का खेल यह प्यारा ,चलता सदा रहता ।

रुक जाये गर यह खेल , सबों का अंत हो जाता।।

सुख -दुख की घड़ियां भी , चलती सदा रहती ।

सुख की घड़ी आनन्द भरती ,दुख बेचैन कर तेती।।

पर दोनों जरूरी है, तभी अनुभूतियां मिलती ।

बिना कुछ दुख की अनुभूति,मजा सुख की कहां मिलती।

ये जीवन,मिलनस्थल है, दोनों ही घड़ियों का।

सफल वह जिंदगी होती ,मजा लैते जो दोनों का ।।

दोस्ती दुखदाई भी होती .

करनी दोस्ती गाढ़ी , कभी दुखदाई भी होती ।

निभाना ही इसे ताउम्र , बहुत कठिनाई भी होती।।

यूं दोस्त राहों में कभी , चलते भी मिल जाते ।

चाहे चाहिए जितना ,अधिक उससे भी मिल जाते।।

जितने लोग मिल जाते, सभी क्या मित्र बन जाते?

बनाना दोस्त तो आसां , निभाना पर कठिन होते ।।

नहीं जो मित्र होते हैं होते , शत्रु तो नहीं होते ?

करनी बुराई उनकी , नहीं क्या ब्यर्थ ही होते ??

मित्र बनाना आजकल , आसान इतना है ।

दबाकर बटन मोबाइल का,उधर से हामी पाना है।।

सामान्य रहना भी नहीं, आसान है होता ।

हर कठिनाइयों का सामना ,करना उन्हें होता।।

आज उन दोस्ती का कोई भी , मतलब नहीं होता।

स्वार्थ साधन का सुगम , एक रास्ता होता ।।

स्वार्थ गर सध गया हो , दोस्ती भी खत्म हो जाती ।

आप का नाम उनके लिस्ट से, डीलिस्ट हो जाती ।।

इन्टरनेट ने तो दोस्ती का ,कद ही बढ़ा डाला ।

संसार के हर देश तक , पहुंचा उसे डाला ।।

हर देश से ही आपकी , अब दोस्ती हो गयी ।

”बसुधैव कुटुम्बकम” भावना ,भी सत्य सी हो गयी।।

बहुत से देश में संसार के,आपका मित्र बैठा है।

अपने देश से नित भेजता , संदेश रहता है ।।

संदेश ही केवल नहीं, गीत ,संगीत आता है ।

वहां की संस्कृति और सभ्यता ,का बोध होता है।।

कभी ऐसा न गुजरा था .

समय जो आज गुजरा जारहा,कभी ऐसा न गुजरा था।

सारा बिश्व ही स्तब्ध , कभी क्या यह नजारा था ??

सबों में मौत का भय है, सबों की जिंदगी प्यारी ।

छिपे सब लोग हैं घर में,गजब ये दास्तां न्यारी ।।

नहीं ऐसा कभी जग में, हुआ था वाकयां पहले ।

नहीं फिर से दोबारा हो , यह लो कसम पहले ।।

मन अशांत है कितना , बाहर से शांन्ति दिखती ।

भयाकुल लोग हैं सारे , प्रकृति सो रही लगती ।।

लगता मौत का तांडव, हर ओर छाया है ।

हो भूमिगत, भयभीत मानव, खुद को छिपाया है।।

मानव का शत्रु तो पापी , कहीं पर सो रहा होगा ।

स्वजन उनके कही छिप कर ,बैठा रो रहा होगा ।।

कीड़े पतंगे खा के , बुद्धि भ्रष्ट कर डाला ।

स्वजनों का शत्रु तुम बता, यह क्या है कर डाला?

चेतना शून्य हो गये , या बची कुछ चेतना तुममें।

बची कुछ है अगर तो सोंचना, यह क्या हुआ तुमसे।।

सोंचोगे अगर निष्काम , दोषी खुद को पाओगे ।

तेरी आत्मा कोसेगी तुमको, कहीं का रह न पाओगे।।

प्रायश्चित करने योग्य भी, तुम रह न पाओगे ।

अपना मुंह दिखाने योग्य , खुद को रख न पाओगे।।

कूकृत्य इससे और ज्यादा ,हो ही नहीं सकता ।

तुम इतने गिरे हो , सर तुम्हारा उठ नहीं सकता ।।

बात को मन ही जन्म देता है.

दो दांत होते हाथी का,एक दिखाने का एक खानेका।

रूपभी आदमीका दोहोता,एक शराफत काएकशैतानी का।

इन्ही दो प्रवृतियों के बीच,मानव जिंदगी चलती ।

जब जिसकी मात्रा बढ़ती, वैसी ही प्रवृति होती।।

अच्छी बुरी बातों को मन ही, जन्म देता है ।

यही तो काम है मन का, अपना काम करता है।।

मस्तिष्क सोंचता इस पर, सोंच कर फैसला देता ।

नियंत्रण तो इन्हीं का है, जो चाहता होता ।।

गुण तीनों भरे रहते सदा, हर मानव मस्तिष्क में।

प्रभावित पर वही करता ,हो जो सर्वोच्च मस्तिष्क में।।

आचार और बिचार तो ,मन में उपजता है ।

सतोगुण का अगर प्रभाव हो,तो उत्तम भाव होता है।।

बहुत कम लोग दुनिया में,जो दिल की बात कहते हैं ।

जो बातें बोलते मुख से , वही मन में भी रखते हैं ।।

जो मिथ्या बात करते हैं, जगत में कद्र पाते हैं ।

जनता पूजती उनको , सभी जयकार करते हैं।।

जिनका सत्य कथन होता ,जो करना चाहते कहते ।

उनकी बात को सुन लोग,मुंह मोड़ चल देते ।।

संख्या कम बहुत उनकी, पर वे ठोस होते हैं ।

जो बातें बोल दी उसनेे, पाषाण की लकीर होते हैं।।

अपनी बात पर रहते, मुकरना जानते नहीं ।

चाहे काल हो आगे , मुकर कर भागते नहीं ।।

बात फिर भी निकलती है, भले कुछ वक्त लग जाता।

समझ जब लोग जाते हैं,महा तुफान बन जाता ।।