प्रकृति क्या गढ़ी कितनी ,कोई कैसे बता सकता ।
उसको छोड़ कर कोई दूसरा,कह भी नहीं सकता।।
सीमा है बडी कितनी, कोई भी कह नहीं सकता।
कितने जीव-जन्तु हैं भरे,नहीं कोई बता सकता ।।
अनंन्त कह कर लोग , अपना पिंड छुडा लेते ।
वे जानते खुद ही नहीं , पर कुछ बता देते ।।
असंख्य जीवों का कहें , भरमार है दुनियाँ ।
असंख्य पौधों के लियै , बहार है दुनियाँ ।।
झरने झर रहे झर-झर ,,घनें जंगल पहाड़ों सै।
कल-कल बह रही नदियाँ, गुजर अपने दरारों से।।
मधुर संगीत सी ध्वनि आ रही,है इन बहारों से।
हवायें भर रही मस्ती कभी, जल की फुहारों से।।
विचरन कर रहे सब वन्यप्राणी,मस्ती के आलम से।
पक्षीगण कर रहे कलरव,किसी झुड़मुट की ओटों से।।
दिखता ही गजब है नजारा,प्रकृति की विधाओं से।
सभी हैं मस्त अपनें धुन मे विस्मृत हो आपदाओं से।।
प्रकृति जो बनाई तूँ, नहीं क्या क्या गढ़ी तुमने ।
परस्पर एक दूजे का , पूरक किया तुमने ।।
तूँने जो किया हमलोग को,अभी समझा नहीं हमने।
तुमनें क्या दिया हमलोग को , देखा नहीं हमने ।
क्या मर्म है उसका , हम क्या भला जानें ?
जितना तुम सिखाया है ,बस केवल वही जानें ।।
तुम्हें हम दाद देते हैं, जितना है दिया तुमनें ।
भले के ही लिए जो कुछ, कर दिया तुमनें ।।
निरंतर जा रहे करते, मेरे ही लिये तुमनें ।
चुकेगा क्या तेरा ये ऋण,जो कुछ लिया तुमने।।