जीवन ही सफल हो जाये.

काम करो कुछ ऐसा ,जीवन ही सफल हो जाये।
मानव को मानव होने का ,मकसद पूरा हो जाये।।

अन्य जीव और मानव में,कुछ फर्क हुआ करता है।
सारे जीवों से ढ़ेर अधिक, विवेक हुआ करता है ।।

जिसने दुनिया रच डाली, कुछ तो मकसद होगा।
विवेक अधिक दे देने का,मतलब भी तो कुछ होगा।।

नहीं बनी कोई चीज जगत की,जिसका मतलब ना हो।
ऐसी चीजें बनी नहीं , जो नहीं जरूरत की हो ।।

रचनेवाला क्या खूब रचा, काफी बूझ समझ कर ।
हम मानव के सोंच से, काफी ऊपर उठ कर ।।

पर मिली सफलता पूर्ण नहीं, बुद्धि मानव में दे कर।
सारे जीवों से ज्यादा, विवेकशील बना कर ।।

भटक गये अधिकांश लोग,निज पथ से अलग चले गये।
सुगम राहों से चलना था, कुपथ पर ही बढ़ते गये ।।

पावन,निर्मल,मानव-ईमान ,लालच के रज से ढ़क गये।
ढकते ढ़कते स्नेह भरा दिल,अपावन बन कर रह गये।।

कुकर्म अधिक सुकर्म बहुत कम,मे मानव तल्लीन हुआ।
भटकते गये अपने पथ से,अपना शौर्य मलीन किया।।

रहे अछूते लोग बहुत कम, संसारिक इस मल से ।
यही दिये कुछ ज्ञान जगत को,अर्जित कर बुद्धिबल से।।

ऐसे ही चलती रहती दुनियाँ,कुछ थोड़े लोग चलाते हैं।
आकण्ठ पाप में डूबों को, दिशा-निर्देश कराते हैं ।।

दुनियाँ मे आये मानव बन, तो अच्छा है कुछ दे जाना।
दुनियाँ को अनुभूति अपनी, पायी जो उसे बता देना ।।

ज्ञान बढ़े कुछ और अधिक, बढ़ इतना हो जाये ।
जो निर्माता का था मकसद , वह पूरा हो जाये ।।

प्यार की कसक

कितना प्यार तुझे करता था,कह कर नहीं बता पाता।
तड़पा करता कितना दिल मेरा,कैसे उसे दिखा पाता।।

दिल में थी पर दूर बसी थी,लगा समाज का था पहरा।
बेताबी तो थी मिलने की,पर बिवस बेचारा जो ठहरा ।।

चक्रब्यूह को भेद न पाता, शर्मो लेहाज का पहरा था ।
बड़े अनाड़ी थे दोनों, मुश्किल ब्यूहभेदन करना था ।।

रोता तो दिल आज याद जब ,आ जाती है मन में ।
बहते आँसू अन्दर ही अंदर, रह जाता दब मन में ।।

उसे दबाना भी मुश्किल था,मुश्किल था यह काम बडा़।
भनक निकल न जाये कहीं,रोके रहनाथा कठिन बडा़।।

कैसे बीते थे जीवन पल, याद आज जब आती है ।
कभी हँसी आती थी मुझको,अंदर ही कभी रुलाती है।।

राह खुला मिलने को मिलगये, दूरी का पर्दा दूर हुआ।
ब्याकुल थे दोनों दिलकितने,मिलनका मार्ग प्रशस्त हुआ।।

खुशियों का अम्बार मिले गर, वह भी मिले अचानक।
उर्जा पैदा कर देता कितना, कह सकते उसे भयानक।।

बहुत ही मुश्किल उसे दबाना, बिस्फोटक होता यह ।
जो संयम इस पर कर ले , धीर पुरूष होता वह ।।

खुशियाँ गम का ही संगम,जीवन को सफल बना देता।
मानव को सारे जीवों से, उत्तम यही बना देता ।।

सीख सीखते लोग इसी से, हर अनुभव यही कराता ।
मानव जीवन को सफल और,सर्वोत्तम भी इसे बनाता।।

जिस दिल में उगता रहे प्यार,जीवन वही सफल होता।
जहाँ घृणा का लेश नहीं,वह कभी नहीं निष्फल होता।।

मिलन विरह का चक्र यही,जिस जीवन में चलता रहता।
फलता फुलता अपने जीवनमेंं,मधुमय यह कितना रहता।।

तुम कहाँ से आई हो?

जन्नत से आई हो उतर,या कहीं से आई हो ?
ऐ सनम इतना बता दो,तुम कहाँ से आई हो??

नाज,नखरें अदायें-कातिल, – जानें कहाँसे पाई हो?
ऐ हुस्न-परी,यह तो बता दो,उडा़ कहाँ से लाई हो??

कैसा कहूँ,तुम सा न कोई , तुम अनोखी चीज हो।
बेताब दिल उलझनमे है,तुम सच हो याकोई ख्वाब हो?

धोखा नहीं तो खा रही, टिकती न नजरें सामने ।
तुम हो कोड़ी कल्पना ,या तूँ दिवस का ख्वाब हो ??

दिल बडा़ उलझन में मेरा , मेरी समझ से दूर हो ।
सुलझा सकूँ शायद नहीं , कि तुम कहाँ से आयी हो।।

चैन से रह पाऊँगा , दे गर बता तूँ कौन हो।
सुकून तो मिल जायेगा, क्यों खड़ी तूँ मौन हो ??

धीरज भी टूटा जा रहा, बेताब दिल बेचैन है ।
देर कर मत चाहिए ज्यादा, दे बता तुम कौन हो ??..

कृषक

ओ किसान भारतका जागो,जन-जनका अन्नदाता जागो।
ओ धरती के परमपुत्र, सो चुके बहुत,उठो,जागो।।

यों तुम तो जगते रहते, सर्दी गर्मी झेला करते ।
बारिश पानी या हो तुफान, परवाह नहीं थोडा करते।।

बादल झमझम बरसा करता,बिजली कड़कड़ करती रहती।
बर्जन घड़घड़ कर कौध कौध,दामिनियाँ करती रहती।।

ऊपर नभ से बारिश कापानी,दिन हो यारातें अधियाली।
बेफिक्र कृषक मिल जायेंगे, खेतो की करते रखवाली।।

उन्हें फिक्र नहीं दिनरात का,खेतों के कँटीले घाँस का।
चुभते पाँवोंमें कंकड़-पत्थर,नाफिक्र भूख या प्यास का।।

श्रम तुम सदा किया करते,सब का ही पेटभरा करते।
रात दिन आँधी पानी में,सजग हो सदा लगा रहते ।।

नभ बरसाये चाहे अनल,तवा सा तप जाये भूतल ।
धरती की सूखी आहर-पोखर,हो जाते निर्जल निर्जल।।

जाड़े में ढंढ़क लिये पवन, ढिढुरा देता जीवों का तन।
बिच्छू सा डंक लगाता रहता,करता रहता हरदम बेचैन।।

पर कृषक नहींउनसे रूकता,निज कर्म नहीं छोड़ा करता
बेफिक्र उसे झेला करता,उफ तक नहीं किया करता ।।

कृषक सैनिक का एक कर्म,दोनों स्वधर्म किया करता।
भरता एक उदर सबों का,एक दुश्मन से लड़ता रहता।।

दोनों ही सदा डटे रहते,दिन-रात का फिक्र नहीं करते।
चौकस तो दोनों ही रहते, बाधाओं से खेला करते ।।

ये दोनों हैं रक्षक मेरे, जिनके बल खाते सोते हैं ।
भविष्य सुरक्षित नहींहैइनकी,ये सदा उपेक्षित रहते हैं।।

ध्यान नहीं सरकार की इनपर,ये अपने हाल पे होते हैं।
अर्पित कर औरों पर जीवन,खुद अपने हाल पेरोते हैं।।

दोनों का सम्मान कहाँ, मिहनतकस का पहचान कहाँ?
जो करते भुला दिये जाते,आडम्बर का सम्मान यहाँ।।

सोंच जरा क्या होता है, ईमान यहाँ बेचारा है ।
अंजाम बुरा होगा इसका, बेईमानों का वारा न्यारा है।।

हुआ था पी०एम०एक महान,लालबहादुर उनका नाम।
जिसने नारा दे रखा,’जय जवान , जय किसान-।।

भ्रष्टाचारी भयभीत हुए, कर डाला उसने ऐसा काम।
षंडयंत्र रचा अन्दर अन्दर ,करवाया उनका काम तमाम।।

 

जिन्दगी

जिन्दगी रफ्तार मेंं , अविरल ही बढती जा रही।
बाधाओं से बेखौफ हो,अपने ही पथ से जा रही।।

क्या जरूरत है भला, होगा मुझे क्या सोंच कर ।
नुकसान क्या है लाभ क्या, बात सारी जान कर।।

मैं मरुँ,मरने से पहले , रोज मर कर क्यों जिऊँ ?
जो बात बस में है नहीं, क्यो फिक्र उनका मैं करूँ??

है कर्म मुझको सिर्फ करना, हम किये ही जायेगे।
फल नहीं है मेरे बस में, चाह भी क्या पायेगे??

ग्रन्थ गीता ने सबों को, ये दिया संदेश है ।
कर्मवादी ही बनाने , का दिया उपदेश है ।

भाग्य रेखा बदल जाते, कर्म के प्रभाव से । बीर होते कर्मवादी, स्वयं ही स्वभाव से ।।

डरते नहीं हैं ये कभी ,रखते भरोसा कर्म का ।
स्वयं पर करना भरोसा ,विसय उनके गर्व का ।।

जिन्दगी रूकती नहीं है ,यह तो बढ़ती जायेगी ।
रुक गयी गर जिन्दगी ,तत्क्षण वहीं मर जायेगी ।।

जिन्दगी का नाम चलना , रुक गये गर मौत है।
मौत को भी क्या कहें ,तन का बदलता रूप है।।

आत्मा जब आमर है ,तन तो बस परिधान है ।
जर्जर हुए परिधान का ,बदलाव ही निदान है ।।

चिन्ता नकर बदलाव का यह तो नियति का खेल है।
खेल तो चलता सदा ,यह खेल भी क्या खेल है ।।

इस बेरहम दुनियाँ मेंं .

इस बेरहम दुनियाँ में , आसान नही हे जीना ।
अपनाही भरोसा करना, औरों का कौन ठिकाना।।

ये दुनियाँ मतलब पर चलती,ऐसों का कौन ठिकाना।
कब रंग बदल देगी अपना,यह भी मुश्किल है कहना।।

जबतक मतलब सधता उनका,बनकर मित्र रहेगें ।
मतलब सध जाता बात खत्म,मुँह फेर के वे चल देगें।।

लेहाज नहीं होगा उनको,हमदोनों मित्र कभी थे ।
छाया सा चलते साथ सदा,होते न कभी अलग थे।।

फेरेगें वे मुख ऐसा, पहचान न पहले था ऐसा ।
आज करेगें बात आप से,अपरिचित मिलते हो जैसा।।

नीयत किसकी कब क्या होगी ,ये नहीं जानता कोई।
हिंसक सा ब्यवहार करेगा,मानव हिंसक बन कोई।।

अर्धज्ञान पा कर मानव, पूरा इन्सान बना है क्या?
मानव रूप रहा पर, मानव पूर्ण बना है क्या ??

सदाचार झचकता जाता अब, दुराचार के आगे ।
सज्जन को ही झुकना पड़ता,अब दुर्जन के आगे।।

आज सिखाता विद्वानों को, अनपढ़ और गंवार।
प्रजातंत्र में बन जाती जब, उनकी ही सरकार ।।

अनपढ को मिलता राज सिंहासन,बिद्वजन चँवर डुलाते
करना पड़ता काम उन्हें सब, जो गंवार फरमाते ।।

प्रजातंत्र का यही तकाजा, संविधान यह कहता ।
मुँड गिनाने के युग में ,तिकडम से सब कुछ चलता ।।

इन्सान बनाकर भेजा है ,इन्सान सा जीवन जीना ।
कल्याण करो कर सको अगर ,कर सकते तूँ जीतना।।

नहीं कोई तुम सा आली.

नयनन हों मानो मधुप्याली,चंचल चितवन आली-आली।
तूँ जहाँ रहे मधुमास वहीं ,कोकिलकंठी मधुरस वाली।।

हर अदानिराली है तेरी, दर्शक को झट बिंधनेवाली ।
जो देख लिया मदहोश हुआ,तेरै नैना हैं जादूवाली।।

तेरा कनक रंग का गौड़ बदन आभाषित करने वाली।
तम तुझे देखकर छिपजाये,जुल्फें नागिन मणियोंवाली।।

जुल्फें सावन की काली-घटा,दामिनियाँ संग चलने वाली।
घटाटोप रातों को भी, जब चाहो शुभ्र करने वाली।।

तुम आयी कहाँसे पता नहीं,नहीं धरती की रहने वाली।
आई हो क्या स्वर्ग लोक से,धरा तरण करने वाली ।।

धरतीवासी स्वागत करता,,सुर को आकर्षित करनेवाली।
ऐ देवलोक की अप्सरा, गौडा़ग कमल नयनों वाली।।

तुम नाच नचा दी दुनियाँ में,दुनियाँ तेरी ही दीवानी।
जलनें को पतंगे पहुँच गये खुद,ढ़ूंढ़ रहे अपनी पाली।।

अपनें हाथों से गढ़ा खुदा,खुद अपनी सभी कला डाली।
रचा तुझे है बडे प्रेम से,हरकण पर खुद नजरें डाली।।

तुमसा आकर्षक कोई नहीं, जो.तुलना में आनेवाली।
खुदा बनाया तुझे अनोखी, ऐ मनमोहक मतवाली ।।

जो तुझे देखता,ठग जाता,नजरों में वो बसनेवाली ।
खो देता सुध-बुध अपना, डाका दिल पर देनेवाली।।

नयनन हों मानों मधुप्याली,चंचल चितवन आली आली।
तूँ रहे जहाँ मधुमास वहीं, कोकिल-कंठी मधुरस वाली।।

ऐ चाँद तूँ बेकार है, बेकार तेरी चाँदनी.

ऐ चाँद तूँ बेकार है , बेकार तेरी चाँदनी।
लोग कहते इसलिए,बस चार दिन की चाँदनी।।

चार दिन केवल चमकते,फिर अँधेरी रात है ।
कब घटोगे,कब बढ़ोगे ,ये सोंचने की बात है।।

चाँद सा मुखडा़ बता कर, लोग करते प्यार हैं।
क्या कहेगें आशिकों को,मरने को खुद तैयार हैं।।

फूल सा कोमल नहीं, सुनते की तूँ पाषाण हो।
दूर से दिखते हो प्यारा ,देते चमक का मार हो।।

वह भी चमक अपनी नही ,तुम कहीं से पाये हो।
दर्पण सरीखे सिर्फ तुमने, प्रवर्तित कर पाये हो ।।

भ्रम में पड़े हैं लोग कब से,पर समझ अब पाये हैं।ष्
वह भी अभी पूरा नहीं, थोड़ा समझ ही पाये हैं ।।

चाँदनी अपनी न तेरी, उधार ले कर आये हो ।
बच्चों से लेकर बृद्ध तक, सबलोग को भरमाये हो।।

‘चाँद मामा’लोग तुमको ,कब से कहते आये हैं ।
रिश्ता पुराना ,और गहरा, को निभाते आये है ।।

चाँद मामा तुम हो शीतल, प्यार करते लोग तुमसे।
स्नेह की बरसात करते, तृप्त होती चित्त तुमसे ।।

तुम लुटा कर चाँदनी, सुकून देते हो सबों को ।
आकर तुरत ही लौट जाकर,दिल दुखाते हो सबों को।।

नाराज हो कर लोग उससे , बोलते बेकार तुमको ।
दिलसे करते प्यार ज्यादा,अनुपस्थिति खलती है उनको।।

आराम देकर छीन लेना, क्या उचित यह काम है ।
हरलोग को खलता यही, देता यही इल्जाम है ।।द

मुक्तक.

(क)
हरगिज न बेवसी का, तमाशा बनाईये ।
लाचार को न भूलकर, खिल्ली उडा़ईऐ।।
देखा कहाँ है कौन कल ,मत भूल जाइए।
बन जायेंं न खुद ही तमाशा,नजरें उठाइए।।

(ख)
कल को कहाँ देखा किसी ने,क्या हो कल क्या पता?
अपना भविष्य क्या है,कुछ भी किसी को है पता ₹??
बीते हुए कल से सबक लें,क्या पाये औरोंको सता ?
थोडा गौर तो कर सोंचिये, हो जायेगा खुद ही पता।।

(ग)
तंज कसते और पर, खुद पर नजर नहीं फेरते।
बुराइयाँँ सदैव उनकी , ढ़ूंढ़ कर निकालते ।।
अपनी कमी जो ढ़ूंढ़ लेते,महान वो इंसान होते।
इन्सान के ही रूप मेंं ,सचमुच वही भगवान होते।।