अद्भुत, प्यारा मेघालय

सच्चिदानन्द सिन्हा

आयें थोडा़ हम अपना, एक राज्य भ्रमण कर आयें।

भारत का छोटा राज्य एक, दर्शन इसका करवायें ।।

असम राज्य का टुकड़ा एक, मेघालय राज्य बना है।

पर्वत खासी, गारो, जैंतिया, हरियाली बड़ा घना है।।

आच्छादित मेघों से रहता , मेघालय कहलाया ।

गुण के ही अनुरूप राज्य का , सुन्दर नाम धराया।।

सुन्दरता की बात न पूछें, स्वर्ग इसे कह सकते ।

लिये गोद में इसे हिमालय, मन देख इसे ना थकते।।

नयनाभिराम हर ओर दृश्य , मनमोहक है, प्यारा ।

ऊँची- नीची घाटियाँ, लगते कितने न्यारा ।।

राजधानी शिलाँग बनी , है शहर लघु, पर सुन्दर ।

स्वच्छता हर ओर यहाँ, गन्दगी न दिखे कहीं पर।।

हर मौसम में बदरी आ , करते रहते अठखेली ।

खेल रहे हों लुकाछिपी, मानों बच्चों की टोली।।

सड़कें लगती, सागर मेंं , उठती हो जैसे भाटा ।

गाड़ी आती दिखती जैसे, कश्ती कोई तैरता आता।।

छोटे -छोटे घर के उपर …

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मैं भी काश परिंदा होता!

सच्चिदानन्द सिन्हा

उड़ता-फिरता मदमस्त पवन में,नीले-ऊँचे, उन्मुक्त गगन में।

बहुत दूर, दृष्टि से ओझल, हो जाता मैं लुप्त, मगन मे ।।

पर्वत की चोटी पर उड़ जाता, जा मस्ती में खेल रचाता।

कोलाहल से बहुत दूर, नीरवता का लुत्फ उठाता ।।

नीचे धरती, नदियाँ-नाले , खेतों में फसलें लहराते ।

जंगल में जो निर्झर का जल, मधुर ध्वनि अनवरत सुनाते।।

सन-सन जंगल का सन्नाटा, सागर का भी उठता भाटा।

सब उड़कर मैं देखा करता, मैं भी काश परिंदा होता!!

फिक्र न होता महलों का, गावों – कस्बों या शहरों का।

गम धन-दौलत का तनिक नहीं, ना भय चोर-लफंगों का।।

उधर जाऊँ या जाऊँ जिधर,अपनी मर्जी उड़ूँ उधर।

नहीं पूछने वाला कोई, क्यो जाते हो इधर-उधर ।।

सच ही होता मैं बंजारा, चंचल, नटखट, इक आवारा।

आज इधर, कल रहूँ किधर, खुद नहीं पता उड़ जाऊँ कहाँ।।

घर है मेरा जल-जंगल, मैं रहूँ, वहीं मंगल रहता।

मुझे फिक्र न रहने का होता, मैं…

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नीर ,नयन या बदली का

सच्चिदानन्द सिन्हा

नीर भरी बदली और तेरी ,नयनों में क्या फर्क रहा।

दोनों ही जल बरसा देती, जब भी उनका जी चाहा।।

तुम दोनों जीवनदाता हो, बिन दोनों जीवन कैसा।

नहीं रहे दोनों में कोई, कमी खलेगी तब कैसा।।

नीर ,नयन बिन जीवन का, क्या संभव है बचना ।

नयन बिना जीवन दुष्कर,पर जल बिन बचेगा कितना।।

जल बरसाते हैं दोनों ही, पर भेद अलग दर्शाता है।

बरस मेघ खुद जीवन देता,आंसू ग़म बतलाता है।।

काम अहम दोनों का रहता, जीवन दोनों से चलता है।

कमी किसी का गर हो जाये, जीवन दूभर हो जाता है।।

दोनों ही नीर हुआ करते, पर कर्म अलग दोनों का।

एक नयन का रक्षक है, एक सकल जीवन का ।।

पर महत्व दोनों का अपना, दोनों ही धर्म निभाते हैं।

निरत रहें दोनों कर्मो में, ‘कर्म ही धर्म’ बताते हैं।।

दोनों हैं वरदान प्रकृति के, जीव-जंतु सबके खातिर।

मुफ्त बाॅटती रहती खुद, सबके जीवनरक्षण खातिर।।

आभारी…

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आज सच्चाई विवश है.

सच्चिदानन्द सिन्हा

ये दुनिया उसी की , जमाना उसी का ।

जिसने शराफत न सीखी, जो हुआ न किसी का।।

नहीं पास तहजीब कोई, न तौर, न तरीका ।

नहीं पास विद्या कोई, न सीखा सलीका ।।

गलत काम सबको ही , मन आज भाये।

गलत जो न करते , वे मूरख कहाये ।।

बेईमानों के हाथों ,सच्चाई बेबस है ।

सिवाये सिसकने के ,चलता न बस है।।

बुरा कर्म करना , उन्हें सिर्फ आता ।

जो बुराई में डूबे , मन इनको भाता ।।

चोरों, बेईमानों का , संगत उन्हें है।

नजरों में उनकी , सज्जन ही बुरे हैं ।।

रखता वो खुद को, नशा में डूबाये ।

कोई ऐसा नशा न, जो बच उससे पाये ।।

डूबते हैं खुद भी, औरों को भी डुबाते।

नये लोग को भी, हैं पथभ्रष्ट बनाते ।।

इनकी संख्या बड़ी है, जमात बड़ी है।

कुपथ पे चलने की ,हिमायत बड़ी है ।।

इनसे बचकर निकलना…

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ज्ञान-दीप

सच्चिदानन्द सिन्हा

दीप जल खुद रोशनी दे , दूर कर देता अंधेरा ।

अग्नि कितने रूप धर ,देता सदा सबको सहारा।।

तुम न थे ,थी रात काली, छाया हुआ रहता अंधेरा।

रोशनी दिखती तभी थी, जब हुआ होता सबेरा ।।

चुपचाप छिप कहीं बैठते, कुछ और कर पाते न थे।

मजबूरियों की जिंदगी, जीने को सब मजबूर थे ।।

हर तरफ से घात करने, को लगे कुछ जीव रहते ।

मौत सब की जिंदगी को, घेरे सदा हर ओर रहते ।।

जिन्दगी और मौत की , रहती सदा थी जंग तब ।

रक्षक न कोई था कहीं, डर जिंदगी जीते थे सब।।

निर्भीक न कोई जीव था, सबने लगाया घात था ।

दरकार मौके का सबों को, खतरों भरा तब रात था।।

सब जीवों से चालाक मानव, अग्नि को जब खोज पाया।

दीप जब सीखा जलाना, अधिकार तम पर पा गया।।

काफी समय उसने लगाया, तब उसे टिमटिमाते दीप को, विकसित सदा…

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मन नहीं थकता कभी

सच्चिदानन्द सिन्हा

कुछ लोग दुनियाॅं में, शायद इसीलिए आते ।

भला सब का करते, बदले कुछ नहीं लेते।।

भलाई करने में सब का, उन्हें आनन्द है मिलता।

पड़ती झेलनी परेशानियाॅं, फिर भी मजा आता।।

सुकून उनके दिल को, इतना अधिक मिलता।

परेशानी समझे सब जहाँ, उन्हें आनंद है मिलता।।

जिन्हें कोई काम करने में, सुखद एहसास मिल जाये।

कठिनतम काम भी उनके लिये, आसान बन जाये ।।

थकान उनके पास तो, आ ही नहीं सकता कभी।

तन जाये थोड़ा थक भले, मन नहीं थकता कभी।।

ऐसे लोग होते चंद ही, ज्यादा नहीं होते ।

बहुधा तो, वर्षों में कभी, अवतार ये लेते।।

वैसे भी तो दुनियाॅं में, सदाचारी हैं कम होते ।

आते हैं सभी निश्छल, विकृत मन यहीं होते।।

मनोविकार ही शत्रु प्रबल, प्रत्येक मानव का।

डुबोये बिन न जल्दी छोड़ता, यह शत्रु है सबका।।

विकार तो कमोबेश सब में, है रहा करता ।

जो बच, अछूता रह गया, है संत…

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लौहपुरुष, तेरा शेष काम

सरदार पटेल बल्लभ भाई, सपना तेरा साकार हुआ।

ऐ लौहपुरुष, तेरा शेष काम, लगभग वह भी पूरा हुआ।।

सुकून मिला होगा तुमको , तीन सौ सत्तर हट जाने से ।

माँ भारती की आँचल से, उस धब्बे को मिट जाने से ।।

यूँ, समय बहुत ज्यादा लग गये, इन बातों को सल्टाने मे ।

थी सिर्फ कमी इच्छाशक्ति की, इस धरा को स्वर्ग बनाने में।।

विलंब हुआ, माँ माफ करो, करबद्ध प्रार्थना करता हूँ।

क्षमा करो गुस्ताखी माँ, नम्र निवेदन करता हूँ ।।

तब समय नहीं लगना था ज्यादा, शायद दो दिन ही थे काफी।

पर समझ न पाये पंडित जी तब, निर्णय ले ली गैर-मुनाफी।।

थे पाँच सौ बासठ टुकड़े तब, सबको साथ मिलाया ।

इन टुकड़े को बाँध साथ एक, भारत देश बनाया ।।

अड़चन कितने आये मग में , सबसे स्वयं निपटकर।

लौहपुरुष ने दम मारा था, भारत एक बना कर ।।

जम्मू-कश्मीर की बची कहानी, थी बस पूरी होनी।

पण्डित जी की गलत पहल से, हो गई पर अनहोनी।।

संविधान के जिस धारे से, कश्मीर पृथक सा पड़ा बना।

आज इसे हट जाने पर, भारत भूमि कुछ पूर्ण बना।।

सपना है, अब जल्दी ही, बाकी कश्मीर जुड़ेगा।

भारत भूमि एक हो सच, जग का सिरमौर बनेगा।।

अब भी संभल जा चीन

सच्चिदानन्द सिन्हा

अब चांद जा कहीं सो गया, दिन-रात चलता थक गया।

जाने कहाँ गयी चांदनी , घनघोर अंधेरा छा गया ।।

आती नजर में कुछ नहीं ,सर्वत्र तम का राज है ।

सद्भावना तो लुप्त हुई, दुर्भावना बस व्याप्त है ।।

निशाचरों का दौर मानो , अब धरा पर आ गया ।

भूत औ बैताल का ,आधिपत्य जग पर छा गया।।

कीड़े-मकोड़े भक्ष करके, जानवर ही बन गया ।

उपहार कोरोना का दे, सारे जग में मातम छा दिया ।।

आहार का प्रभाव मन पर ,क्या है पड़ता, देख लो ।

इंसान ही इंसान के, पीछे पड़ा है, देख लो।।

इंसान तो लगता नहीं , बस आदमी का रूप है ।

कब धरेगा रूप कैसा , यह महज विद्रूप है ।।

बात है कोई नई नहीं , है युग-युगों से आ रही।

बुराई ने अच्छाई पर , कहर सा बरपा रही ।।

अच्छाई की पर जीत होती , यही अंतिम सत्य…

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ज्ञानी मचाते शोर नहीं .

सच्चिदानन्द सिन्हा

चाहता विध्वंस वही , जो निर्माण कर पाता नहीं।

आसान है विध्वंस करना, निर्माण पर आसाॅं नहीं।।

जिसने बनाई सृष्टि सारी , उसको समझ पाया नहीं।

क्या बनाया, क्यूँ बनाया , भेज़े में घुंस पाया नहीं ।।

देखा नहीं जिसको अभी तक,तेरी सोच में जो गया नहीं।

अज्ञानता की दौड़ में, भटके पड़े होंगे कहीं ।।

ज्ञान जिनमें हो भरा , कहकर बताते हैं नहीं ।

पड़ती जरूरत जब कभी, करके दिखाते हैं वही।।

बकवास करते वे रहे, संदिग्ध जो होते वही।

जिनका भरोसा हो अटल,शांत रहते हैं वही।।

खाली ही बर्तन है खनकता,शांत है रहता नहीं।

भर जाए जो बर्तन, कभी नाहक खनक करता नहीं।।

नकली चमकते हैं अधिक,असली कभी उतने नहीं।

नकली चमक पर है क्षणिक,असली कभी उतरे नहीं।।

हंडिया बराबर काठ का , है चढ़ा करता नहीं ।

झूठ कैसा भी हो, आगे सच के टिक सकता नहीं।।

जो लोग कम कुछ जानते, समझाये समझ पाते नहीं।

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देख यही कलियुग का खेल

बाबूजी द्वारा रचित आज की वस्तुस्थिति का चित्रण करती एक खूबसूरत रचना पुनः पेश कर रहा हूँ। आशा है, आप सब पाठकों को पसंद आये।

सच्चिदानन्द सिन्हा

देख ज़माना बदल गया,

हैं बदल गए अब सारे खेल,  देख यही कलियुग का खेल I

पुत्र पिता पर धोंस जमाए,

सुने न तो फटकार लगाए,

डपटे, झपटे, मुर्ख बताए,

चलता उल्टा खेल, देख यही कलियुग का खेल I

पुत्र पिता का पेंशन लाए,

जहाँ -तहाँ दस्तखत कराए,

सारा माल हड़प कर जाए,

हर दम चलता रहता  खेल, देख यही कलियुग का खेल I

बापू यदि विरोध जताए,

दस्तखत को धता बताए,

अपना गर अधिकार जमाए,

देता बेटा घर में ‘सेल’, देख यही कलियुग का खेल I

बुड्ढ़ा, जीवन में किया ही क्या,

खाया-पिया और ऐश किया,

केवल पेंशन ही है लाता,

प्रोग्राम, कराता है हर फेल, देख यही कलियुग का खेल I

बुड्ढ़ा नौकरी में मर जाता,

उसका क्या काम बिगड़ जाता,

मुझे तो नौकरी मिल ही जाती,

जिया, बिगाड़ा खेल, देख यही कलियुग का खेल.

पाठशाला सरकार बनाई,

उसमे कैसा नियम लगाई,

शिक्षक का है एक न चलता,

नहीं कर सकता किसी को…

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