मन नहीं थकता कभी

सच्चिदानन्द सिन्हा

कुछ लोग दुनियाॅं में, शायद इसीलिए आते ।

भला सब का करते, बदले कुछ नहीं लेते।।

भलाई करने में सब का, उन्हें आनन्द है मिलता।

पड़ती झेलनी परेशानियाॅं, फिर भी मजा आता।।

सुकून उनके दिल को, इतना अधिक मिलता।

परेशानी समझे सब जहाँ, उन्हें आनंद है मिलता।।

जिन्हें कोई काम करने में, सुखद एहसास मिल जाये।

कठिनतम काम भी उनके लिये, आसान बन जाये ।।

थकान उनके पास तो, आ ही नहीं सकता कभी।

तन जाये थोड़ा थक भले, मन नहीं थकता कभी।।

ऐसे लोग होते चंद ही, ज्यादा नहीं होते ।

बहुधा तो, वर्षों में कभी, अवतार ये लेते।।

वैसे भी तो दुनियाॅं में, सदाचारी हैं कम होते ।

आते हैं सभी निश्छल, विकृत मन यहीं होते।।

मनोविकार ही शत्रु प्रबल, प्रत्येक मानव का।

डुबोये बिन न जल्दी छोड़ता, यह शत्रु है सबका।।

विकार तो कमोबेश सब में, है रहा करता ।

जो बच, अछूता रह गया, है संत…

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लौहपुरुष, तेरा शेष काम

सरदार पटेल बल्लभ भाई, सपना तेरा साकार हुआ।

ऐ लौहपुरुष, तेरा शेष काम, लगभग वह भी पूरा हुआ।।

सुकून मिला होगा तुमको , तीन सौ सत्तर हट जाने से ।

माँ भारती की आँचल से, उस धब्बे को मिट जाने से ।।

यूँ, समय बहुत ज्यादा लग गये, इन बातों को सल्टाने मे ।

थी सिर्फ कमी इच्छाशक्ति की, इस धरा को स्वर्ग बनाने में।।

विलंब हुआ, माँ माफ करो, करबद्ध प्रार्थना करता हूँ।

क्षमा करो गुस्ताखी माँ, नम्र निवेदन करता हूँ ।।

तब समय नहीं लगना था ज्यादा, शायद दो दिन ही थे काफी।

पर समझ न पाये पंडित जी तब, निर्णय ले ली गैर-मुनाफी।।

थे पाँच सौ बासठ टुकड़े तब, सबको साथ मिलाया ।

इन टुकड़े को बाँध साथ एक, भारत देश बनाया ।।

अड़चन कितने आये मग में , सबसे स्वयं निपटकर।

लौहपुरुष ने दम मारा था, भारत एक बना कर ।।

जम्मू-कश्मीर की बची कहानी, थी बस पूरी होनी।

पण्डित जी की गलत पहल से, हो गई पर अनहोनी।।

संविधान के जिस धारे से, कश्मीर पृथक सा पड़ा बना।

आज इसे हट जाने पर, भारत भूमि कुछ पूर्ण बना।।

सपना है, अब जल्दी ही, बाकी कश्मीर जुड़ेगा।

भारत भूमि एक हो सच, जग का सिरमौर बनेगा।।

अब भी संभल जा चीन

सच्चिदानन्द सिन्हा

अब चांद जा कहीं सो गया, दिन-रात चलता थक गया।

जाने कहाँ गयी चांदनी , घनघोर अंधेरा छा गया ।।

आती नजर में कुछ नहीं ,सर्वत्र तम का राज है ।

सद्भावना तो लुप्त हुई, दुर्भावना बस व्याप्त है ।।

निशाचरों का दौर मानो , अब धरा पर आ गया ।

भूत औ बैताल का ,आधिपत्य जग पर छा गया।।

कीड़े-मकोड़े भक्ष करके, जानवर ही बन गया ।

उपहार कोरोना का दे, सारे जग में मातम छा दिया ।।

आहार का प्रभाव मन पर ,क्या है पड़ता, देख लो ।

इंसान ही इंसान के, पीछे पड़ा है, देख लो।।

इंसान तो लगता नहीं , बस आदमी का रूप है ।

कब धरेगा रूप कैसा , यह महज विद्रूप है ।।

बात है कोई नई नहीं , है युग-युगों से आ रही।

बुराई ने अच्छाई पर , कहर सा बरपा रही ।।

अच्छाई की पर जीत होती , यही अंतिम सत्य…

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ज्ञानी मचाते शोर नहीं .

सच्चिदानन्द सिन्हा

चाहता विध्वंस वही , जो निर्माण कर पाता नहीं।

आसान है विध्वंस करना, निर्माण पर आसाॅं नहीं।।

जिसने बनाई सृष्टि सारी , उसको समझ पाया नहीं।

क्या बनाया, क्यूँ बनाया , भेज़े में घुंस पाया नहीं ।।

देखा नहीं जिसको अभी तक,तेरी सोच में जो गया नहीं।

अज्ञानता की दौड़ में, भटके पड़े होंगे कहीं ।।

ज्ञान जिनमें हो भरा , कहकर बताते हैं नहीं ।

पड़ती जरूरत जब कभी, करके दिखाते हैं वही।।

बकवास करते वे रहे, संदिग्ध जो होते वही।

जिनका भरोसा हो अटल,शांत रहते हैं वही।।

खाली ही बर्तन है खनकता,शांत है रहता नहीं।

भर जाए जो बर्तन, कभी नाहक खनक करता नहीं।।

नकली चमकते हैं अधिक,असली कभी उतने नहीं।

नकली चमक पर है क्षणिक,असली कभी उतरे नहीं।।

हंडिया बराबर काठ का , है चढ़ा करता नहीं ।

झूठ कैसा भी हो, आगे सच के टिक सकता नहीं।।

जो लोग कम कुछ जानते, समझाये समझ पाते नहीं।

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देख यही कलियुग का खेल

बाबूजी द्वारा रचित आज की वस्तुस्थिति का चित्रण करती एक खूबसूरत रचना पुनः पेश कर रहा हूँ। आशा है, आप सब पाठकों को पसंद आये।

सच्चिदानन्द सिन्हा

देख ज़माना बदल गया,

हैं बदल गए अब सारे खेल,  देख यही कलियुग का खेल I

पुत्र पिता पर धोंस जमाए,

सुने न तो फटकार लगाए,

डपटे, झपटे, मुर्ख बताए,

चलता उल्टा खेल, देख यही कलियुग का खेल I

पुत्र पिता का पेंशन लाए,

जहाँ -तहाँ दस्तखत कराए,

सारा माल हड़प कर जाए,

हर दम चलता रहता  खेल, देख यही कलियुग का खेल I

बापू यदि विरोध जताए,

दस्तखत को धता बताए,

अपना गर अधिकार जमाए,

देता बेटा घर में ‘सेल’, देख यही कलियुग का खेल I

बुड्ढ़ा, जीवन में किया ही क्या,

खाया-पिया और ऐश किया,

केवल पेंशन ही है लाता,

प्रोग्राम, कराता है हर फेल, देख यही कलियुग का खेल I

बुड्ढ़ा नौकरी में मर जाता,

उसका क्या काम बिगड़ जाता,

मुझे तो नौकरी मिल ही जाती,

जिया, बिगाड़ा खेल, देख यही कलियुग का खेल.

पाठशाला सरकार बनाई,

उसमे कैसा नियम लगाई,

शिक्षक का है एक न चलता,

नहीं कर सकता किसी को…

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रात नहीं, तो चंदा कैसा

‘रात नहीं, तो चंदा कैसा’ मेरे पिता जी के द्वारा लिखी श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है। उन्हीं के आशीर्वाद से मैं इस भावपूर्ण रचना को reblog कर रहा हूँ। आशा है, आपको पसंद आये।

सच्चिदानन्द सिन्हा

जब लोग बहुत ऊॅचे हो जाते, नीचे वाले छोटे दिखते।

जरा आसमान में जाकर देखें, सबके सब बौने दिखते।।

हो जो जैसा, दिखता वैसा,वही नजर अच्छी होती।

हो जैसा पर दिखे न वैसा, दृष्टिदोष यही होती।।

आज जमाना ऐसा है, नजरें धोखा खा ही जातीं ।

होता कुछ, है नजर कुछ आता,अक्सर भूल यही होती।।

किसके अन्दर क्या है बैठा,नजर कहाॅ किसी को आता।

बाहर से है जैसा दिखता, कहाॅ वही भीतर होता।।

अंदर-बाहर एक हों, ऐसे लोग बहुत कम होते।

अंतर्मन में कचरा भर, बाहर से अच्छे दिखते।।

लोग बहुत ही विरले होते, देख नजर जो भाप सकें।

अन्दर है क्या राज छिपा, देख नजर से जान सकें।।

छोटा कौन ,बड़ा कौन है, वक्त-दशा का होता फर्क ।

कितने बड़े-बडों का इसने, कर डाला है बेड़ा गर्क ।।

सब का अलग नजरिया होता, सोच सबों का अपना होता।

महत्व सबों का अलग-अलग, वक्त सबों को देता रहता।।

जहां पर…

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गौतम बुद्ध

2015 के पन्नों से पिताजी की एक और रचना पुनः प्रस्तुत है। भगवान गौतम बुद्ध के जीवन-दर्शन की झलक दिखाती ये रचना आशा है, आप सब को पसंद आये।

सच्चिदानन्द सिन्हा

कपिलवस्तु के राजघराने

में तूने था जनम लिया I

सिद्धार्थ पड़ा था नाम तुम्हारा

तूने कर्म महान किया II

न ठाठ राजसी था तेरा

केवल थे कर्म महान I

सदा लगा था रहता तेरा

सदाचार पर ध्यान II

जीवन में घटना कुछ ऐसी

देखा और गंभीर हुआ I

ध्यान लगा सोचा जो उनपर

आगे चल वही महान हुआ II

घटना यूँ नहीं अजूबा कोई

सदा घटा करता है I

मानव मरता जब, सजा ज़नाज़ा

मरघट तक जाता है II

नज़र पड़ी सिद्धार्थ की उसपर

बुलाया, पूछा,  ये क्या है I

चार व्यक्ति मिल ले जाते हो

बता, मामला क्या है II

बात बतायी उसने सारी

अच्छे से समझाया I

मानव मरता, है जाना पड़ता

बातें सारी बतलाया II

आगे देखा, एक भिखारिन

दिन-हीन  थी हालत उसकी I

पूछा उसके पास पहुंचकर

जानी सारी  बातें उसकी II

मन में घटनाएँ घर कर गयीं

ढेरों प्रश्न उठे मन में I

जाग उठी…

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जल-संकट सुलझाना होगा

मेरे पिताजी की 2015 में लिखी ये खूबसूरत रचना जल संरक्षण के महत्व को रेखांकित करती है। आशा है , आप सब को पसंद आये!

सच्चिदानन्द सिन्हा

सम्पूर्ण धरा का दो तिहाई है,

जल ही जल,पर

मानवता,फिर क्यों हो निर्जल।

सागर का तो जल है खारा,

कुछ जल,हिमनदों में फंसा बेचारा।

शेष जो जल नदियों में आता,

धरती के जो गर्भ में जाता,

जल वही हमारे काम है आता॥

जल है, तो जीवन है रहता,

नदियां, झरनें और जंगल होता।

शांति, समृद्धि और सुख रहता,

मानव समाज का पोषण होता॥

बिन जल, जीवन शून्य है होता,

बिन जल कोई, कल भी न चलता।

बिन जल, विकास की गाड़ी थमती,

सभ्यता नहीं फिर आगे बढ़ती॥

आज के  इस शहरी युग में, पर

जल का दोहन अंधाधुंध है।

शेष बचे, उपयोगी जल पर भी,

प्रदूषण का छाया गहन धुंध है॥

जल की उपलब्धता सीमित है,

पर जल पर भार असीमित है।

जल को अतः बचाना होगा,

जल के विभिन्न उपयोगों में,

मितव्ययिता अपनाना होगा॥

नदी और तालों के जल को ,

और उपयोगी संचित भूजल को,

कैसे स्वच्छ रखें व निर्मल।

उपाय…

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स्व. सच्चिदानंद सिन्हा जी द्वारा लिखित दो काव्य-संग्रह ” दिल के दर्पण में” एवं ” मधुर यादें जिंदगी की”

मेरे पिताजी स्व. सच्चिदानंद सिन्हा जी द्वारा लिखित दो काव्य-संग्रहों ” दिल के दर्पण में” एवं ” मधुर यादें जिंदगी की” का लोकार्पण दिनांक 6.1.2021 को डॉ अनिल सुलभ, माननीय अध्यक्ष, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, पटना के कर-कमलों से सम्पन्न हुआ। डॉ शिववंश पांडेय, माननीय प्रधानमंत्री, बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं अन्य माननीय साहित्यकारों की गरिमामय उपस्थिति में यह कार्यक्रम बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के कदमकुआं, पटना स्थित सभागार में संपन्न हुआ।

कोरोना महामारी के चलते ही मेरे बाबूजी अपने रहते इन पुस्तकों का लोकार्पण नहीं करवा सके थे, और फिर दुर्भाग्यवश इसी महामारी ने विगत 24 दिसंबर, 2020 को उन्हें हम सब से सदा के लिए अलग कर दिया, छीन लिया।

आप सब का हार्दिक आभार एवं प्रणाम, जो किसी न किसी रूप में मेरे बाबूजी के जीवन से जुड़े थे, और कभी न कभी उनकी खुशी का कारण बने थे!

आपका
राकेश कुमार

प्रकृति भेद नहीं करती.

सूर्यन करता भेद कभी,उनको दिखते सब एक समान।

उनकी नजरों में सभी एक,सबका ही करते कल्याण ।।

देता है प्रकाश सबों को,बिन भेद भाव के एक समान।

बड़े, छोटे हर जीव सभी,उनकी नजरों में एक समान।।

पवन सभी को प्राणवायु दे,जीवन रक्षण है करता ।

दुष्ट और निकृष्टों को भी, नहीं कभी वंचित करता।।

उनकी नजरोंमें भेदनहीं,उनको सब दिखतेएक समान।

दिनरात अहीत जोकरता रहता,उसकभी करतेसम्मान।

नहीं वृक्ष देखा करते, है कौन शत्रु या कौन है मित्र ।

दिन रात काटते जो रहते ,उनका भी ये होते मित्र ।।

दिन रात इसे जो काट रहे, उनको भी छाया,फल देते।

बदले का भाव नहीं मन में, उनका कभी रहा करते ।।

सरिता निर्मल जलदेती सबको,जलक्या जीवन हीदेती।

निकृष्ट प्राणि-मानव उसको भी, प्रदूषित कर ही देती।।

बादल जल बरसाता है,बिन भेद किये जल देता है।

सारे सचर अचर पर अपना,सुधा का रस बरसाता है।।

नहीं भेद करता वह मानव, जो सचमुच मानव होता।

सागर से भी ज्यादा गहरा,उनका मन मस्तिष्क होता।।

परमार्थ सिर्फ मानवकर सकता,कोई नहीं दूसरा प्राणी।

शक्तिनिहित तो ज्यादा कुछमें,पर कहां मनुजसा ज्ञानी।

नहीं भेद करती है प्रकृति, अपने कोई कार्य कलापों में।

जीवन देने से मृत्युतक में,कहाॅं फर्क कोई कामों में ।।

खुराफातजो करता मानव,मानव मस्तिष्ककी देनयही।

प्रदूषित मस्तिष्कको करदेता,करता उल्टा काम यही।।