मैं भी काश परिंदा होता!

सच्चिदानन्द सिन्हा

उड़ता-फिरता मदमस्त पवन में,नीले-ऊँचे, उन्मुक्त गगन में।

बहुत दूर, दृष्टि से ओझल, हो जाता मैं लुप्त, मगन मे ।।

पर्वत की चोटी पर उड़ जाता, जा मस्ती में खेल रचाता।

कोलाहल से बहुत दूर, नीरवता का लुत्फ उठाता ।।

नीचे धरती, नदियाँ-नाले , खेतों में फसलें लहराते ।

जंगल में जो निर्झर का जल, मधुर ध्वनि अनवरत सुनाते।।

सन-सन जंगल का सन्नाटा, सागर का भी उठता भाटा।

सब उड़कर मैं देखा करता, मैं भी काश परिंदा होता!!

फिक्र न होता महलों का, गावों – कस्बों या शहरों का।

गम धन-दौलत का तनिक नहीं, ना भय चोर-लफंगों का।।

उधर जाऊँ या जाऊँ जिधर,अपनी मर्जी उड़ूँ उधर।

नहीं पूछने वाला कोई, क्यो जाते हो इधर-उधर ।।

सच ही होता मैं बंजारा, चंचल, नटखट, इक आवारा।

आज इधर, कल रहूँ किधर, खुद नहीं पता उड़ जाऊँ कहाँ।।

घर है मेरा जल-जंगल, मैं रहूँ, वहीं मंगल रहता।

मुझे फिक्र न रहने का होता, मैं…

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