ज्ञान-दीप

सच्चिदानन्द सिन्हा

दीप जल खुद रोशनी दे , दूर कर देता अंधेरा ।

अग्नि कितने रूप धर ,देता सदा सबको सहारा।।

तुम न थे ,थी रात काली, छाया हुआ रहता अंधेरा।

रोशनी दिखती तभी थी, जब हुआ होता सबेरा ।।

चुपचाप छिप कहीं बैठते, कुछ और कर पाते न थे।

मजबूरियों की जिंदगी, जीने को सब मजबूर थे ।।

हर तरफ से घात करने, को लगे कुछ जीव रहते ।

मौत सब की जिंदगी को, घेरे सदा हर ओर रहते ।।

जिन्दगी और मौत की , रहती सदा थी जंग तब ।

रक्षक न कोई था कहीं, डर जिंदगी जीते थे सब।।

निर्भीक न कोई जीव था, सबने लगाया घात था ।

दरकार मौके का सबों को, खतरों भरा तब रात था।।

सब जीवों से चालाक मानव, अग्नि को जब खोज पाया।

दीप जब सीखा जलाना, अधिकार तम पर पा गया।।

काफी समय उसने लगाया, तब उसे टिमटिमाते दीप को, विकसित सदा…

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मन नहीं थकता कभी

सच्चिदानन्द सिन्हा

कुछ लोग दुनियाॅं में, शायद इसीलिए आते ।

भला सब का करते, बदले कुछ नहीं लेते।।

भलाई करने में सब का, उन्हें आनन्द है मिलता।

पड़ती झेलनी परेशानियाॅं, फिर भी मजा आता।।

सुकून उनके दिल को, इतना अधिक मिलता।

परेशानी समझे सब जहाँ, उन्हें आनंद है मिलता।।

जिन्हें कोई काम करने में, सुखद एहसास मिल जाये।

कठिनतम काम भी उनके लिये, आसान बन जाये ।।

थकान उनके पास तो, आ ही नहीं सकता कभी।

तन जाये थोड़ा थक भले, मन नहीं थकता कभी।।

ऐसे लोग होते चंद ही, ज्यादा नहीं होते ।

बहुधा तो, वर्षों में कभी, अवतार ये लेते।।

वैसे भी तो दुनियाॅं में, सदाचारी हैं कम होते ।

आते हैं सभी निश्छल, विकृत मन यहीं होते।।

मनोविकार ही शत्रु प्रबल, प्रत्येक मानव का।

डुबोये बिन न जल्दी छोड़ता, यह शत्रु है सबका।।

विकार तो कमोबेश सब में, है रहा करता ।

जो बच, अछूता रह गया, है संत…

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