अब चांद जा कहीं सो गया, दिन-रात चलता थक गया।
जाने कहाँ गयी चांदनी , घनघोर अंधेरा छा गया ।।
आती नजर में कुछ नहीं ,सर्वत्र तम का राज है ।
सद्भावना तो लुप्त हुई, दुर्भावना बस व्याप्त है ।।
निशाचरों का दौर मानो , अब धरा पर आ गया ।
भूत औ बैताल का ,आधिपत्य जग पर छा गया।।
कीड़े-मकोड़े भक्ष करके, जानवर ही बन गया ।
उपहार कोरोना का दे, सारे जग में मातम छा दिया ।।
आहार का प्रभाव मन पर ,क्या है पड़ता, देख लो ।
इंसान ही इंसान के, पीछे पड़ा है, देख लो।।
इंसान तो लगता नहीं , बस आदमी का रूप है ।
कब धरेगा रूप कैसा , यह महज विद्रूप है ।।
बात है कोई नई नहीं , है युग-युगों से आ रही।
बुराई ने अच्छाई पर , कहर सा बरपा रही ।।
अच्छाई की पर जीत होती , यही अंतिम सत्य…
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बहुत सुन्दर |
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