अब भी संभल जा चीन

सच्चिदानन्द सिन्हा

अब चांद जा कहीं सो गया, दिन-रात चलता थक गया।

जाने कहाँ गयी चांदनी , घनघोर अंधेरा छा गया ।।

आती नजर में कुछ नहीं ,सर्वत्र तम का राज है ।

सद्भावना तो लुप्त हुई, दुर्भावना बस व्याप्त है ।।

निशाचरों का दौर मानो , अब धरा पर आ गया ।

भूत औ बैताल का ,आधिपत्य जग पर छा गया।।

कीड़े-मकोड़े भक्ष करके, जानवर ही बन गया ।

उपहार कोरोना का दे, सारे जग में मातम छा दिया ।।

आहार का प्रभाव मन पर ,क्या है पड़ता, देख लो ।

इंसान ही इंसान के, पीछे पड़ा है, देख लो।।

इंसान तो लगता नहीं , बस आदमी का रूप है ।

कब धरेगा रूप कैसा , यह महज विद्रूप है ।।

बात है कोई नई नहीं , है युग-युगों से आ रही।

बुराई ने अच्छाई पर , कहर सा बरपा रही ।।

अच्छाई की पर जीत होती , यही अंतिम सत्य…

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