बाबूजी द्वारा रचित आज की वस्तुस्थिति का चित्रण करती एक खूबसूरत रचना पुनः पेश कर रहा हूँ। आशा है, आप सब पाठकों को पसंद आये।
देख ज़माना बदल गया,
हैं बदल गए अब सारे खेल, देख यही कलियुग का खेल I
पुत्र पिता पर धोंस जमाए,
सुने न तो फटकार लगाए,
डपटे, झपटे, मुर्ख बताए,
चलता उल्टा खेल, देख यही कलियुग का खेल I
पुत्र पिता का पेंशन लाए,
जहाँ -तहाँ दस्तखत कराए,
सारा माल हड़प कर जाए,
हर दम चलता रहता खेल, देख यही कलियुग का खेल I
बापू यदि विरोध जताए,
दस्तखत को धता बताए,
अपना गर अधिकार जमाए,
देता बेटा घर में ‘सेल’, देख यही कलियुग का खेल I
बुड्ढ़ा, जीवन में किया ही क्या,
खाया-पिया और ऐश किया,
केवल पेंशन ही है लाता,
प्रोग्राम, कराता है हर फेल, देख यही कलियुग का खेल I
बुड्ढ़ा नौकरी में मर जाता,
उसका क्या काम बिगड़ जाता,
मुझे तो नौकरी मिल ही जाती,
जिया, बिगाड़ा खेल, देख यही कलियुग का खेल.
पाठशाला सरकार बनाई,
उसमे कैसा नियम लगाई,
शिक्षक का है एक न चलता,
नहीं कर सकता किसी को…
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यथार्थ चित्रण।
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