रात नहीं, तो चंदा कैसा

‘रात नहीं, तो चंदा कैसा’ मेरे पिता जी के द्वारा लिखी श्रेष्ठ रचनाओं में से एक है। उन्हीं के आशीर्वाद से मैं इस भावपूर्ण रचना को reblog कर रहा हूँ। आशा है, आपको पसंद आये।

सच्चिदानन्द सिन्हा

जब लोग बहुत ऊॅचे हो जाते, नीचे वाले छोटे दिखते।

जरा आसमान में जाकर देखें, सबके सब बौने दिखते।।

हो जो जैसा, दिखता वैसा,वही नजर अच्छी होती।

हो जैसा पर दिखे न वैसा, दृष्टिदोष यही होती।।

आज जमाना ऐसा है, नजरें धोखा खा ही जातीं ।

होता कुछ, है नजर कुछ आता,अक्सर भूल यही होती।।

किसके अन्दर क्या है बैठा,नजर कहाॅ किसी को आता।

बाहर से है जैसा दिखता, कहाॅ वही भीतर होता।।

अंदर-बाहर एक हों, ऐसे लोग बहुत कम होते।

अंतर्मन में कचरा भर, बाहर से अच्छे दिखते।।

लोग बहुत ही विरले होते, देख नजर जो भाप सकें।

अन्दर है क्या राज छिपा, देख नजर से जान सकें।।

छोटा कौन ,बड़ा कौन है, वक्त-दशा का होता फर्क ।

कितने बड़े-बडों का इसने, कर डाला है बेड़ा गर्क ।।

सब का अलग नजरिया होता, सोच सबों का अपना होता।

महत्व सबों का अलग-अलग, वक्त सबों को देता रहता।।

जहां पर…

View original post 57 और  शब्द