संध्या प्रहर में जब धरा से , रोशनी जाती ।
चुपचाप न जाने कहाॅं से , रात आ जाती ।।
बच्चे खेलकर थककर , घर को लौटने लगते ।
मानों उतर आसमां से जमीं पर ,तारे चले आते।।
झुरमुट, झाड़ियों की ओट में जा, खेलने लगते।
यही तारे गगन का ।क्या? जिसे जुगनू कहा करते ??
जुगनूएं इस धरा पर आ , धरा का लुत्फ ले लेते।
शामिल खेल में होकर,मेरे संग खेलने लगते ।।
कौतुहल बस देख उनको, मुक्त कर देते ।।
बच्चे जुगनूओं को पकड़, उनको कैद कर लेते।
इन जुगनूओं के संग , उनका खेल नित चलता।
आमोद में डूबा वहाॅं का, संसार तब लगता ।।
जुगनूएं कौतुहलबस आसमां में, है उड़ा करता।
न जाने टार्च लेकर क्यों, संध्या को निकल पड़ता ।।
शायद मस्तियों में मस्त हो ,वह घूमता फिरता ।
बच्चों के लिए वह केन्द्र ,आकर्षण का बन जाता।।
पकड़ लेता कभी उसको, कभी वह छोड़ भी देता।
लुका-छिपी का खेल यह तो, नित्य ही चलता ।।
सदा यह मित्र बन हर लोग के, बीच में रहता ।
सबों को प्यार यह करता, सबों से प्यार यह पाता।।
बच्चों का परम यह मित्र, निभाया भी उसे करता।
मिलने आसमाॅं से चल, यहां हर रोज ही आता ।।