दीप जल खुद रोशनी दे , दूर कर देता अंधेरा ।
अग्नि कितने रूप धर ,देता सदा सबको सहारा।।
तुम न थे ,थी रात काली, छाया हुआ रहता अंधेरा।
रोशनी दिखती तभी थी, जब हुआ होता सबेरा ।।
चुपचाप छिप कहीं बैठते, कुछ और कर पाते न थे।
मजबूरियों की जिंदगी, जीने को सब मजबूर थे ।।
हर तरफ से घात करने, को लगे कुछ जीव रहते ।
मौत सब की जिंदगी को, घेरे सदा हर ओर रहते ।।
जिन्दगी और मौत की , रहती सदा थी जंग तब ।
रक्षक न कोई था कहीं, डर जिंदगी जीते थे सब।।
निर्भीक न कोई जीव था, सबने लगाया घात था ।
दरकार मौके का सबों को, खतरों भरा हर रात था।।
सब जीवों से चालाक मानव, अग्नि को जब खोज पाया।
दीप जब सीखा जलाना, अधिकार तम पर तब पाया।।
टिमटिमाते दीप को, विकसित सदा करते रहे ।
काली निशा की कालिमा से, हम सदा लड़ते रहे।।
विज्ञान हरदम ढूँढकर, सुविधायें कुछ लाता रहा ।
कठिनाइयों के बीच, सुगम राह बनाता रहा।।
ज्ञान का जब दीप हरदम, हर जगह जल जायेगा।
संसार के हर जीव का, जीवन सुलझ तब पायेगा ।।
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