प्रकृति भेद नहीं करती.

सूर्यन करता भेद कभी,उनको दिखते सब एक समान।

उनकी नजरों में सभी एक,सबका ही करते कल्याण ।।

देता है प्रकाश सबों को,बिन भेद भाव के एक समान।

बड़े, छोटे हर जीव सभी,उनकी नजरों में एक समान।।

पवन सभी को प्राणवायु दे,जीवन रक्षण है करता ।

दुष्ट और निकृष्टों को भी, नहीं कभी वंचित करता।।

उनकी नजरोंमें भेदनहीं,उनको सब दिखतेएक समान।

दिनरात अहीत जोकरता रहता,उसकभी करतेसम्मान।

नहीं वृक्ष देखा करते, है कौन शत्रु या कौन है मित्र ।

दिन रात काटते जो रहते ,उनका भी ये होते मित्र ।।

दिन रात इसे जो काट रहे, उनको भी छाया,फल देते।

बदले का भाव नहीं मन में, उनका कभी रहा करते ।।

सरिता निर्मल जलदेती सबको,जलक्या जीवन हीदेती।

निकृष्ट प्राणि-मानव उसको भी, प्रदूषित कर ही देती।।

बादल जल बरसाता है,बिन भेद किये जल देता है।

सारे सचर अचर पर अपना,सुधा का रस बरसाता है।।

नहीं भेद करता वह मानव, जो सचमुच मानव होता।

सागर से भी ज्यादा गहरा,उनका मन मस्तिष्क होता।।

परमार्थ सिर्फ मानवकर सकता,कोई नहीं दूसरा प्राणी।

शक्तिनिहित तो ज्यादा कुछमें,पर कहां मनुजसा ज्ञानी।

नहीं भेद करती है प्रकृति, अपने कोई कार्य कलापों में।

जीवन देने से मृत्युतक में,कहाॅं फर्क कोई कामों में ।।

खुराफातजो करता मानव,मानव मस्तिष्ककी देनयही।

प्रदूषित मस्तिष्कको करदेता,करता उल्टा काम यही।।

किसे भेंट करूॅं ?

पारिजात का पुष्प चयन कर, बड़े यतन से ले आया ।

अरमानों से सजा गुलों को, गुलदस्ता तैयार किया।।

किसे करूॅं मैं भेंट प्यार से , इस प्यारे गुलदस्ते को ।

है सर्वश्रेष्ठ हकदार कौन , भेंट करूॅं पहले किनको ।।

आजाद हमें करवा कर गये ,उन सारे पुरोधाओं को ।

जो ताज पहन बैठा दिल्ली में ,उन सारे नेताओं को।।

जो डटे सदा रहते दिन-रात , वर्फीले सरहद के ऊपर ।

हमें चैन की नींद सुलाते , खुद वर्फों में रह रह कर ।।

बिघ्न अनेकों खुद सहकर , हमें मीठी नींद सुलाते हैं।

गोली की बौछारों को , अपने सीने पर सह जाते हैं ।।

या बेठे तख्तपर नेताओं को,जो राज-सुखोको भोगरहे।

या उन गुण्डों बदमाशों को,जो जनताको बरगला रहे।।

या गुलदस्ते को भेंटकरूॅं,उन खोजी वैज्ञानिक को ।

अनवरत लगाता जीवन अपना,उन जैसे वैज्ञानिक को।

ऋषियों,मुनियों कोभेट करूॅं,जीनेंका जोराह दिखाया।

अपना पूरा जीवन जिसने, अध्यात्म में सिर्फ लगाया।।

या भेंट करूॅं कृषकों को,अन्न दिया करता जो सबको।

अपना जीवन तंगी में जीते,परयही पेट भरता सबको।।

इन सबको है देना गुलदस्ता,पर वरिय किसे मैं मानूं?

उलझन में मैं पड़ा हुआ हूॅ, सर्वश्रेष्ठ किसे मैं जानूॅं ??

इस उलझनसे पार करादे,उलझन बहुत जटिल लगता।

कौन रास्ता उत्तम होगा , बतलाते तो अच्छा होता ।।

जुगनूएं.

संध्या प्रहर में जब धरा से , रोशनी जाती ।

चुपचाप न जाने कहाॅं से , रात आ जाती ।।

बच्चे खेलकर थककर , घर को लौटने लगते ।

मानों उतर आसमां से जमीं पर ,तारे चले आते।।

झुरमुट, झाड़ियों की ओट में जा, खेलने लगते।

यही तारे गगन का ।क्या? जिसे जुगनू कहा करते ??

जुगनूएं इस धरा पर आ , धरा का लुत्फ ले लेते।

शामिल खेल में होकर,मेरे संग खेलने लगते ।।

कौतुहल बस देख उनको, मुक्त कर देते ।।

बच्चे जुगनूओं को पकड़, उनको कैद कर लेते।

इन जुगनूओं के संग , उनका खेल नित चलता।

आमोद में डूबा वहाॅं का, संसार तब लगता ।।

जुगनूएं कौतुहलबस आसमां में, है उड़ा करता।

न जाने टार्च लेकर क्यों, संध्या को निकल पड़ता ।।

शायद मस्तियों में मस्त हो ,वह घूमता फिरता ।

बच्चों के लिए वह केन्द्र ,आकर्षण का बन जाता।।

पकड़ लेता कभी उसको, कभी वह छोड़ भी देता।

लुका-छिपी का खेल यह तो, नित्य ही चलता ।।

सदा यह मित्र बन हर लोग के, बीच में रहता ।

सबों को प्यार यह करता, सबों से प्यार यह पाता।।

बच्चों का परम यह मित्र, निभाया भी उसे करता।

मिलने आसमाॅं से चल, यहां हर रोज ही आता ।।

जज़्बात.

जज़्बात में बहकर कभी भी , कुछ न कीजिए ।

मीठी लगे काफी जहर , पर हरगिज न पीजिए।।

हर चीज जो मीठी लगे , मिष्ठान नहीं होते ।

कितनी जहर उसमें भरी ,यह जान लीजिए।।

करने या करने के कबल, मंथन उसे मन में करें।

हर ढ़ग से अच्छा लगे , वही सब काम कीजिए।।

लेना अगर हो फैसला ,न जल्दबाजी कीजिए।

हरबर का लिया फैसला पर, भरोशा न कीजिए।।

प्रतिउत्पन्न- मतित्व की जरूरत सबकोही रहनी चाहिए

जरुरत जल्द की होती, वहाॅं मत देर कीजिए ।।

अहम कुछ फैसला करना, जरूरी जल्द भी होता ।

सोंचे बिना गंभीरता से, तो कुछ न कीजिए ।।

जज़्बात में बहना कभी ,होता नहीं अच्छा कभी ।

नहीं लेकर गलत कोई फैसला ,पश्चाताप कीजिए।।

एक भूल ही काफी , सभी सूकर्म धोने के लिए ।

हो स्मरण इस बात की , कभी भूला न कीजिए।।

जज़्बात ने ही ले डुबोया ,हरलोग को हरदम सदा ।

कोशिश कभी बह जाने का , नहीं प्रयास कीजिए।।

नियंत्रण मानव-मन का.

दिलकी बातें कह बतलाना,कठिन बहुत, आसान नहीं।

दुखते रगको झकझोर हिलाना,लेलेगा क्या प्राण नहीं?

पर अक्सर लोग हिला ही देते,उस दुखते से रगको।

लेते हैं आनन्द उसीमें,देकर दर्द अधिक उनको।।

दुखतों को ही और दुखाकर, लेते लोग मजा है ।

इन्हे दुखाये तभी समझते,कितनी कठिन सजा है।।

जो दर्द पराई का समझे,वह दिल का बहुत बड़ा होता।

वह मानव सामान्य नहीं,काफी ऊॅंचे स्तर का होता ।।

काम,क्रोध, मद,लोभ मनुज का,शत्रु बहुत प्रवल होता।

पावन मानव-मन के मगमें,अवरोध बना खड़ा रहता ।।

जो मानव अपने मनको,नियंत्रित कर खुद रखता है ।

उनको सारे अवगुण मिलभी,कुछनहीं बिगाड़ पाता है।

जहां नियंत्रण घट जाता,हावी उसपर सब हो जाता।

उसे नराधम बिना बनाये, चैन नहीं ले पाता ।।

बिना नियंत्रण कुछ भी जगका,शुद्ध नहीं चल सकता।

नियंत्रण तो है परमावश्यक , तभी शुद्ध चल सकता ।।

ज्ञान-दीप

दीप जल खुद रोशनी दे , दूर कर देता अंधेरा ।

अग्नि कितने रूप धर ,देता सदा सबको सहारा।।

तुम न थे ,थी रात काली, छाया हुआ रहता अंधेरा।

रोशनी दिखती तभी थी, जब हुआ होता सबेरा ।।

चुपचाप छिप कहीं बैठते, कुछ और कर पाते न थे।

मजबूरियों की जिंदगी, जीने को सब मजबूर थे ।।

हर तरफ से घात करने, को लगे कुछ जीव रहते ।

मौत सब की जिंदगी को, घेरे सदा हर ओर रहते ।।

जिन्दगी और मौत की , रहती सदा थी जंग तब ।

रक्षक न कोई था कहीं, डर जिंदगी जीते थे सब।।

निर्भीक न कोई जीव था, सबने लगाया घात था ।

दरकार मौके का सबों को, खतरों भरा हर रात था।।

सब जीवों से चालाक मानव, अग्नि को जब खोज पाया।

दीप जब सीखा जलाना, अधिकार तम पर तब पाया।।

टिमटिमाते दीप को, विकसित सदा करते रहे ।

काली निशा की कालिमा से, हम सदा लड़ते रहे।।

विज्ञान हरदम ढूँढकर, सुविधायें कुछ लाता रहा ।

कठिनाइयों के बीच, सुगम राह बनाता रहा।।

ज्ञान का जब दीप हरदम, हर जगह जल जायेगा।

संसार के हर जीव का, जीवन सुलझ तब पायेगा ।।

चितवन-वाण अति घातक.

घायल मतकर और न दिल को, बढ़ा दर्द जाता है।

दर्द सहन करने की क्षमता , अब कमता जाता है।।

पीड़ा और बढ़ेगी ज्यादा, दिल शायद ही सह पाये।

टीस सहन से ज्यादा हो तो,ऐसा न हो ,टूट जाये ।।

विरह वेदना को सह लेना,होता तो आसान नहीं।

पाषाण-हृदय भी कितना रोता,बतलाना आसान नहीं।।

जुबां हिलाने से भी पहले, ऑंखें अश्रुसे भर जाती ।

नयना ,जिह्वाके कहने से,पहलेही सबकुछ कह जाती।

गम खुशी प्रकट दोनों कर देती,नयनें अपनी भाषा में।

छिपती भी नहीं छिपाये इनसे,न बंधती बंधनपाशा में।।

चितवन-वाण बहुत है घातक,यह अचूक है होता।

गंभीर घाव कितना कर देगा, नहीं कोई कह सकता ।।

बचना भी आसान नहीं, संभव ही नहीं असंभव ।

वख्सा न ऋषि-मुनियों तकको,बचना किया असंभव।।

कितने सूरबीर तो इनसे ,नत-मस्तक हो खड़े रहे।

कृपादृष्टि उनकी पाने को, नजरें अपनी बिछा रहे।।

दिलमें यह उम्मीद लिए,कि नजरें कमी घुमेगी ।

कभी इनायत की नज़रें तो, मेरी ओर फिरेगी ।।

उम्मीद जगाती हिम्मत को, पहल तभी यह करती।

हिम्मत के आगे बड़े बड़ों को,भी झचक जानी पड़ती।।

जिनमें हिम्मत की थाह नहीं हो,सबकुछ उनको संभव।

असंभव तो असकों को होता,समर्थों कोकहाॅं असंभव।

ऐसे हिम्मत वाले कम होते, कभी नगण्य होते हैं ।

उनकी कीर्ति सदा चमकती, लुप्त नहीं होते हैं।।