नवरत्न हैं सर्वत्र बिखरे , आज भी संसार में।
बटोर लेते धन मजेमें,माहिर जो हो इस खेलमें।।
प्रकृति की सम्पदा है, हर जगह बिखरी पड़ी।
उपयोगिता उनकी बढ़ाते,जो ब्यर्थही बिखरी पड़ी।।
जिसे ब्यर्थ का जंगल समझ,परेनानियाॅ थे झेलते।
बुद्धि लगा उससे बना कुछ,दौलत उसीसे बटोरते।।
उपयोगिता की चीज प्यारी,हम बना देते उसीसे।
भेजकर बाजार में, दौलत बना लेते उसीसे ।।
स्वच्छ झरने से निरंतर, शुद्ध जल गिरता सदा।
बोतलों में भर उसीको , बेंचते रहते सदा ।।
गौड़कर तो सोंचिये ,कितना बड़ा ब्यापार यह ।
बुद्धि लगा दौलत बनाया,न किये किसीको ह्रासयह।।
औरभी चीजें अनेकों, अक्ल से बनवा रहे ।
बाजार से दौलत मजे में,बटोर कर वे ला रहे।।
निर्माण में कम खर्च कर ,उपयोगिता उसकी बढ़ाते।
दौलतनहीं ज्यादा लगाकर,दौलत अधिक उसे बनाते।।
संलग्न कितनों को किये,अपने किये ब्यापार में।
रोजगार तो अपना किये ,अनेकों नौकरी दी कार्यमें।।
यह उपज मस्तिष्क का उनका, श्रमिकों को काम देता।
विवेक को अपना लगा,कितने लोगों को लाभ देता।।
धन्य हैं वे लोग ऐसे, जो इस तरह का काम करते।
स्वयं थोडा लाभ लेकर, देश को भी लाभ देते ।।
हर हाथ को जो काम देते, सचमुच बड़े महान होते।
श्रमका उचितवे कामदेकर,कितनेलोगका कल्याणदेते।