हर आदमी ही कूप का, मंडूक होता है।
जितना जानता है,बस उसे दुनियाॅ समझता है।
दुनियाॅ है बड़ी कितनी , भला उनको पता क्या ?
ब्रह्माण्ड में कितनी है दुनियां, यह पता क्या ??
मानव ज्ञान ही अल्प है,अब तक नहीं क्या ?
बहुत है जानना बाकी , वही ये सत्य है क्या ??
जितना जानता है , ज्ञान का एक कण भी है क्या?
है ज्ञान का आगार का कोई , कोई थाह भी क्या ??
जितना जान पाये ,बस उसी पर कूदते हैं ।
खुद का थपथपाते पीठ , खुद पर फूलते हैं।।
अथाह है दुनियाॅ , नहीं है थाह इनका ।
नहीं देखा किसी ने , पर यही अंदाज सबका।।
जो देखते केवल, वही क्या सत्य होता ?
उससे बहुत ज्यादा ,पर अलग भी सत्य होता ।।
न कोई थाह सकता , थाह से इतनी बड़ी है ।
कल्पना कर सको जितनी, अधिक उससे बड़ी है।।
मानव डूबता उसमें ,तो उतराता कभी है ।
अथाह सागर का मजा , लेता सभी है ।।
जो वह देखता है बस , उसे दुनियाॅ समझता ।
बहुत कुछ और है आगे , नहीं बिलकुल समझता।।
यहभी सच, नहीं सब कोई सब कुछ जान जाये।
रहस्य कितने गूढ़ हैं ,सब समझ जायें ।।
आध्यात्म का ही रास्ता , एक सत्य दिखता ।
सिवा इसके है जितने रास्ते, असत्य दिखता ।।
पर यह सोंच मेरी है निजी, चैलेंज नहीं है।
कथन यह सत्य ही है, बात भी ऐसी नहीं है।।