मुक्तक

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(01)

जो खेलते हैं आग हे , डरते नहीं तुफान से

सागर का सीना चीरते ,टकराते सदा चट्टान से।

भय भागता भयभीत हो , बस एक ही हुंकार से।

पर झुकाता स्वयं को , कोई कहे जब प्यार से ।।

(०२)

जो सम्मान देते और को , सम्मान पाते भी वही।

अपमान जो करते किसी को,अपमान भी पाते वही।।

अपमान और सम्मान का, रिश्ता नया तो है नहीं।

सम्मान से पीकर हलाहल, नीलकंठ बन पाये वही।।

(०३)

जन्म से ही कोई बुरा , इन्सान नहीं होता ।

नहीं कोई हिन्दू या कोई,मुसलमान ही होता ।।

धरती पर सबलोग आते ,इन्सान ही बनकर।

पर लोग उनको बाॅट कर,कुछ भी बना देता ।।

(०४)

दीपक खुद जल कर , सबको प्रकाश देता है।

चंदन भी खुद जल कर,सबको सुबाष देता है।।

जो दाता है वह तो , देकर ही आनन्द पाता है।

तिलैया सूख जाने तक ,सबका प्यास बुझाता है।।

(०५)

जहाॅ याचक बहुत होते, दाता मिल ही जाताहै।

जहां दाता न हो कोई ,याचक न होता है।।

भिक्षुक बनाने में अहम,है रोल दाता का ।

अगर हो ना समझ दाता ,याचक बनही जाता है।।

(०६)

शिला देते वही , जिनके दिलों में प्यार बसता है।

बहुत नाजुक वो होता दिल, जिसमें प्यार रहता है।।

जो पाषाण दिल होते ,न होता प्यार थोड़ा भी ।

चट्टान पर भी क्या कभी , गुलजार रहता है ।।

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