बुना है जाल मानव ने.

जगत किसने रचा है ये , कहाॅ देखा किसी ने ।

रचयिता को बताया जो ,किया अटकल सबोंने।।

अलग सब नाम लेते हैं, अलग ब्याख्यान देते हैं।

तरीका भी अलग होता ,अलग पहचान देते हैं।।

अलग सब रास्ता होता,दिशा उनका अलग होता ।

तरीके को बदल थोड़ा , कुछ ही नाम अलग होता।।

मकसद एक ही होता ,अलग पर नाम देते हैं ।

रहे वर्चस्व उनका ही सदा, वे ध्यान देते हैं।।

मनुज में फर्क क्या ?सब एक हैं अभिन्न हैं सारे।

बनावट खून का ,सारा गठन भी, एक हैं सारे ।।

मजहब, धर्म, जाति में, मनुज को बाॅट कर रखा ।

बढ़ाकर फूट ,ब्यमनस्यता का बीज बो डाला ।।

अनेकों खंड में बाॅटा , जहर को भी भरा ऐसा ।

जीवन भर न मिलकर एक हो, कुछ कर दिया वैसा।।

चुभन होता रहे दिल में, मिटे ना टीस ही दिल का।

घटे ना दुश्मनी इनकी ,बढ़े कुछ दूरियां दिल का ।।

सदा वे फोड़ते रहते ,निरंतर लूटते जमकर ।

सगूफा छोड़ते रहते ,नया कुछ और ही रचकर।।

दो मजहबों के बीच में, झगड़ा लगा देते ।

दिलों में भर जहर को, प्रेम का दीपक बुझा देते।।

जो मित्र बनकर ज़िन्दगी भर, साथ था मेरा ।

वही है शत्रु बन कर ,खून का प्यासा बना मेरा।।

इनके चाल में फॅस , लोग तो बर्बाद हो जाते।

मगर उस धूर्त का मकसद , कामयाब हो जाते।।

जो चाहते वे लोग, उनका काम बन जाता ।

मानव जिंदगी पर बेवजह, परेशान हो जाता।।

बुना है जाल मानव ने , मानव ही फॅसाने को।

मानव फॅसा उल्लू को अपना,सीधा करने को ।।

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