मत माॅग मदद तूॅ कभी किसी से,मदद न कोईदेगा ।
भरपूर उड़ायेगा खिल्ली, जमकर उपहास करेगा।।
करता दया न कोई किसी पर,अपने मतलबमें सभी लिप्त हैं।
बड़ा समझते हो जिसको तुम, नहीं स्वयंभी कभी तृप्त है।।
निहित अगर होंये गुण तुममें,चिपकेंगे खुदही वेआकर।
नहीं कभी कोई देता ज्यादा,कभी किसीभी याचक को।
निसक समझ कर करें कृपा कुछ,भर दे उनके झोलीको।।
सभी रहें पर उनके नीचे,मानव का स्वभाव यही ।
निकल नपायें उनसे आगे,चाहत मानव का सदायही।।
तोड़ सभी दीवरों को गर,निकल पड़ोगे तुम आगे ।
फिर देख जमाना तेरे पीछे, आयेगा भागे भागे।।
यही चलन चलता आया है, युगों-युगों से दुनियाॅ का।
बदले नहीं बदल पायेगा , ये रस्म पुराना दुनियाॅ का ।।
यह मृत्युभुवन है लोगों का, आना है धर्म निभाना है।
अपना विवेक से कर्म सभी,अपने ढ़ंग से निपटाना है।।
कर्म-कूकर्म करते जोभी,उसका फल उनको मिलता।
किमे गये अपने कर्मों का , उत्तरदाई वह खुद बनता।।
मानव बनकर आये हो ,मानव का धर्म निभा दो।
अनुकरण तुम्हारा लोग करे,कुछ ऐसाकर दिखला दो।।
आने-जाने का क्रम सदा से ,चलता ही आया है ।
अमिट नाम पर उनमें से कुछ, का ही रह पाया है।।
कर्म किये कुछ है ऐसा , जिससे विख्यात हुए वह।
दिये जगत को कुछ ऐसा,जग भूल न पायेगा वह।।
हैं।