उड़ता-फिरता मदमस्त पवन में,नीले-ऊँचे, उन्मुक्त गगन में।
बहुत दूर, दृष्टि से ओझल, हो जाता मैं लुप्त, मगन मे ।।
पर्वत की चोटी पर उड़ जाता, जा मस्ती में खेल रचाता।
कोलाहल से बहुत दूर, नीरवता का लुत्फ उठाता ।।
नीचे धरती, नदियाँ-नाले , खेतों में फसलें लहराते ।
जंगल में जो निर्झर का जल, मधुर ध्वनि अनवरत सुनाते।।
सन-सन जंगल का सन्नाटा, सागर का भी उठता भाटा।
सब उड़कर मैं देखा करता, मैं भी काश परिंदा होता!!
फिक्र न होता महलों का, गावों – कस्बों या शहरों का।
गम धन-दौलत का तनिक नहीं, ना भय चोर-लफंगों का।।
उधर जाऊँ या जाऊँ जिधर,अपनी मर्जी उड़ूँ उधर।
नहीं पूछने वाला कोई, क्यो जाते हो इधर-उधर ।।
सच ही होता मैं बंजारा, चंचल, नटखट, इक आवारा।
आज इधर, कल रहूँ किधर, खुद नहीं पता उड़ जाऊँ कहाँ।।
घर है मेरा जल-जंगल, मैं रहूँ, वहीं मंगल रहता।
मुझे फिक्र न रहने का होता, मैं भी काश परिंदा होता!!
फल-फूलों पर राज हमारा, सब पर ही अधिकार हमारा।
बागों के फल हम खाते, जंगल के फल पर राज हमारा।।
प्रजाति मेरी है अनेक, शक्ल-सूरत भी हैं अनेक।
भिन्न-भिन्न हैं रंग अनेकों, गले-गले के तान अनेक ।।
कुछ की आवाज निराली है, मीठी है, गज़ब सुरीली है।
थोड़े कुछ ऐसे भी हैं, जो कुटिल-कुरूप, बेसुरे हैं।।
फिर भी सभी परिंदों की, अपनी-अपनी कुछ खूबी होती।
देख उन्हें मेरा दिल करता, मैं भी काश परिंदा होता!!
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