प्रकृति,सब चीज तुम्हारी है.

घटाटोप हो चाहे अॕधेरा,फिर भी कुछ दिख ही जाती।

चमकजाती चपला रह-रह,अंधकारभी छॕटही जाती।।

चपलाकी चमक कब कितनी होगी,पताकहां किसीको।

लोग मूकदर्शकहै केवल,चुपचाप भोगता रहता उसको।

प्रकृति क्या करवा दे कब, कहां जानता कोई ?

डूबभी सकते पर्वतवासी,नहीं मानता जल्द कोई??

असम्भव को सम्भव करना,उनकी फितरत मेंहैं रहते।

राजा-रंक को बनते रहना,यहभी तो नितदिन होते।।

सबकुछ तो तुम्ही बनाये हो,मिटाया भी तुमही करते।

कण-कण पर दृष्टि अपनी,हरदम ही रखे रहते ।।

सारी ही सृष्टि तुम्हारी है, दृष्टि भी मिली तुम्हारी है।

तुम्ही नजर सब पर रखते,सारी ही चीज तुम्हारी है।।

किसका अभिनय किसेहै करना,तुझेहीयह बतलानाहै।

उसकै आगे क्या है करना,यहभी तो समझाना है ।।

अनवरत तमाशा करती रहती,करवातीभी सबसेरहती।

पलभर आराम नहीं करती,नहीं किसी को करने देती।।

पता नहीं चलता है प्रकृति,क्यों ऐसा करती रहती।

खुद तो रुकती नहीं कभी, नहीं औरों को रुकने देती।।

क्या आनन्द उसे मिलता ,सृजन संहार कराने में।

सदा ब्यस्त रहती हो तुम, बनाने और मिटाने में।।

कितनी शक्ति है तुममें,रहस्य किसी को कहाॅ पता ?

जिनके मन में आता जो भी,देता सबको वही बता।।

अटकलबाजी पर ही दुनिया का,काम चला जाता है।

करनेवाला चुपचाप स्वयं ही, उसे किये जाता है ।।

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