‘बसुधैव कुटुम्बकम ‘भावना , विश्व को भारत दिया।
अब सिमटते सिमटते, कितना न जाने सिमट गया।।
दे ज्ञान हमने विश्व को, हम बने थे विश्व -गुरु ।
लुप्त होते जा रहे अब , अज्ञानता हो गये शुरू।
उदंडता का अंधकार , देश में छाने लगा ।
नई पीढ़ियों पर नशे का, उन्माद भी चढ़ने लगा।।
भौतिकता अब धुंध बनकर, छा रहा संसार में।
सब को ढ़कते जा रहा , यह धुंध ही संसार में।।
बच पायेगा इससे अछूता, लोग कम वैसा रहेगें।
जो भी रहेगें ,नगण्य होगें , प्रताड़ना सब का सहेगे।।
उग्रता हर लोग में ही , नित्य बढ़ती जा रही ।
सहनशीलता हर लोग से , रोज कमती जा रही।।
समय का प्रभाव है या , असर यह आहार का ।
प्रत्यक्ष पर दिखती कमी है, हमलोग में अब प्यार का।।
लोभ लालच का असर ,हर लोग में ही बढ़ गया ।
प्रेम का प्रभाव तो , हरलोग में ही कम गया ।।
अपनेआप में ही सिमटते , जा रहे हर लोग अब ।
समाज का कल्याण को तो , सोंचता कमलोग अब।।
घट रही अब दायरा ही, आदमी का सोंच का ।
यह ईशारा है नहीं क्या , संकीर्णता है सोंच का ।।
रोग फैला जा रहा यह ,गर नहीं रोका गया ।
तो समझ लें आदमी एक, जानवर रह जायेगा।।