कभी विरानों में भी ,कुछ फूल निकल आते ही ।
वगैर मिट्टी के, चट्टानों पर, पौधे भी निकल आतेही।।
प्रकृति चाहती जिसको, सजाना जहाॅ,सज वहीं जाता।
असंभव जो दिखे सबको,संभव हो वही जाता ।।
पठाना चाहता जहाॅ जिसे , जाना ही पड़ता है।
जाना पड़ता नहीं केवल , पहुंचा दिया जाता है ।।
सारी ब्यवस्था प्रकृति ,खुद ही किया करती ।
कामतो अनगिनत रहते उन्हें,वाखूबी पर किया करती।
सारे सचर-अचर जगती का, संचालन यही करती।
अपना काम करती स्वयं,भरोसे पर नहीं रहती ।।
करते ब्यवधान जो पैदा ,उनके पावन कर्मो में।
उसे वह ध्यान में रखती , सूचीबद्ध कर ख्यालों में।।
अति पर जब कभी होता ,हल उसका भी कर देती।
निदान बिगड़े हुए कामों का ,क्षणभर में कर देती ।।
पर हम मानव बातों को उनकी,समझ नहीं पाते ।
हर कामों में उनके , ब्यवधान पूर्ण किये देते ।।
पर अपनी नासमझी से, नुकसान स्वयं का कर लेते।
हम बड़े मूढ़ताबस बातों को,समझ कहां भी पाते ??
जो जंगल जीवन देता , हम काट खत्म करते रहते ।
खुद अपने टांगों पर हम, टाॅगा स्वयं चलाते रहते ।।
जो नदियाॅ जल-जीवन देती,गंदा हम खुद ही करते।
उन्हें विषाक्त कर देने में, तनिक भी रहम नहीं करते।।,