चाहत.

कोई चाहत बहुत दर्द , देती हैं दिल को ।

हॅसाती है थोड़ी ,रूलाती भी दिल को ।।

सारी चाहत तो पूरी , न होती किसी का ।

चाहे नृप या साधारण , हो व्यक्ति कहीं का।।

अस्त साम्राज्य में , जिनका सूरज न होता ।

उनके सामर्थ्य का भान , किनको न होता ??

जिनके सुन नाम सब ,अपने सिर को झुकाते ।

उनके आदेश सुनने को , आतुर से रहते ।।

ऐसे सम्राटों को भी , सहन करनी पड़ती ।

कारणवस न कोई , चाहत पूर्ण होती ।।

दंश चाहत का सबको , सहना ही है पड़ता।

कोई चाहत बिना तो , रह ही न सकता ।।

अपनी चाहत पर कब्जा , जो खुद कर है लेता ।

नाम संतों की श्रेणी में , अव्वल उनका होता ।।

पर यह आसान उतना , नहीं जितना दिखता ।

बहत कम ‘खडा़’ लोग , इस पर उतरता ।।

वैसे अच्छों की संख्या , तो होती ही बहुत कम ।

बात यह तो सनातन , इनमें काफी है दम ।।

मानव सब जानकर भी , नहीं त्याग पाता ।

भूत चाहत का दिल से , निकल ही न पाता ।।

कर के प्रयास उसका ,सफल हो जो जाते ।

वह तो मानव से उठ कर , महा सन्त बनते ।।

दिल की चाहत ही मानव को , सब कुछ बनाती।

जैसा दिल में बिठाता , वैसा ही बनाती ।।

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