सावन की घटा जब आती है, मस्ती लेकर आती है।
उनकी छटा अवनी पर, बन हरियाली छा जाती है।।
सूखे प्यासे अवनी पर ,बादल बन जल आता है।
धरती के सूखे होंठों को,तर कर प्यास मिटाता है ।।
मोर नाचने लगता वन का , मनमोर नाचता मन का ।
सावनकी कालि देखघटायें,खिलता मुखड़ा जनजन का
एहसास धरा के जीवों को,राहत गर्मी से देता ।
झुलसते जीव-जंतु,प्राणि पर, नव यौवन भर देता ।।
सूख रहे पेड़ों पौधों पर, फिर से हरियाली छा जाती।
बेहोश पड़े से जीवों में,खुशियाॅ ही खुशियाॅ भर जाती।।
दृश्य धरा का मनमोहक, हरा,भरा,प्यारा लगता ।
नीले ,काले , घन आसमान में, आता जाता ही रहता।।
धूप-छाॅव की आॅख मिचौनी,हरदम खेल कराता रहता।
कभी सूर्य को ढ़क देता,कभी दूर भाग खड़ा रहता।।
रात भयावह हो जाती, तम छा जाता घनघोर ।
उरगण डर खुद छिप जाते , पता नहीं किसओर।।
बिजली जब कभी कड़कती है, नभ गर्जन करता है।
मानों झुड गजराजों का, चिघ्घार किया करता है
झुंड मतवाला कुंजर सा , वन में जब दौड़ लगाता ।
पेड़ों पौधों को रौंद-रौंद कुछ, ध्वस्त किये देता ।।
नाले, नदियाॅ,ताल -तिलैया, जल प्लावित हो जाते।
कृषक खेत में सस्य लगा, कितना हर्षित हो जाते ।।
भयभीत नहीं बादल का गर्जन,या उल्कापात करापाते।
बेफिक्र बड़े होते हैं ये , चाहें गर नहीं डरा पाते ।।