लगता नहीं क्या दुनियाॅ की,परिदृश्य बदलती जा रही?
इन्सान की इन्सानियत ही, लुप्त होती जा रही ??
विकास हरगिज कह न सकते,ह्रास होता जा रहा ।
मनोभावना ही अब मनुज का ,नित्य गिरता जा रहा।।
समय का प्रभाव समझें , या असर आहार का ।
सत्य पर रहना कठिन, पतन नैतिकता का होरहा।।
हर आदमी बिश्वस्थ था , स्वयं अपने आप में ।
काबिल भरोसे के सदा , प्रपंच करने से रहा ।।
अब बदलते सब गये ,कदम मिलाये वक्त से ।
बदलते बदल इतना गये ,कि मूल ही अब न रहा।।
यथार्थ से गये दूर होते , प्रकृति को त्यागते गये ।
कृत्रिमता हर लोग को , लेकर घसीटे जा रहा ।।
मतलबी इन्सान होता , मतलब से मैत्री गाॅठता।
साधकर मतलब तो फिर , पहचान से कतरा रहा ।।
शर्म हया सब खत्म हो गये ,लेहाज भी बचे नहीं।
मतलब सधाने के लिए, कूकृत्य नंगा हो रहा ।।
लोभ लालच बढ़ गया, इस श्रेष्ठ मानव जीव में।
श्रेष्ठता का गुण सभी , अब खत्म होता जा रहा।।
सत्य-पथ को छोड़ कर , मिथ्याचार अब अपना लिया।
लेकर सहारा झूठ का ही,अब काम सारा हो रहा ।।
सत्य-पथ का पथिक अब, बच ही रहे थोड़े बहुत।
जो बचे ,उसपर हथौड़ा , अत्याचारियों का पर रहा ।।
सत्य-पथ का रास्ता , जाने बनाया क्यों विधाता ।
सत्य-पथगामी ‘बेचारा,’ बन यहां पर रह गया ।।
बिल्कुल सही कहा आपने, अति उत्तम लेख 🙏🙏
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धन्यवाद।
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🙏🙏
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धन्यवाद।
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