देखने को देखते,हरलोग आंखें खोल अपनी ।
पर वहीतक खुल सकी,उसकी जहांतक सोंच अपनी।।
दृष्टिकोण अपना सोचने का,होता अलग हरलोग का।
हर चीज रहती एकही,दिखती अलग हर लोग का ।।
‘छः अंधे एक हाथी,’ शायद सुनें होगें कहानी ।
स्पर्श करजो समझ पाया,सबकी अलग होगयी कहानी
अपनी जगह सब ठीक थे,स्पर्श भी सच ही बताया।
अनुमान जो उसने किया,क्या गलत उसने लगाया।।
पर सोंच जिसकीहै जहां तक,वह वहीं तक सोंच पाया।
जाना उसे था और आगे,पर वहां तक जा न पाया ।।
यह हाल सिर्फ उनका नहीं,सबलोग का है हाल यह।
पहुंचा जहां जो है जहां,लगता उन्हें वही थाह वह।।
अनन्त यह ब्रह्माण्ड है,अनन्त सारी चीज इसमें।
हर को समझ कर जान पाना, है नहीं आसान इतने।।
अबतक जो मानव जान पाया,वह अधूरा ज्ञान है।
जो पूर्ण उसको मान ले,वह भटका हुआ इन्सान है।।
अज्ञानता का तम भरा,काफी अभी इन्सान में।
पर दूर करने की तुरत, कूबत नहीं इन्सान में ।।
काफी समय अब भी लगेगा,रहस्य पूरा जानने में।
रहस्य पर का आवरण, उसको हटा कर फेंकने में।।
जो गम्भीरता से सोंचते, आवरण वे ही हटाते।
गूढ़ बातें जानकर, लोगों को भी वे ही बताते।।