एक अजनबी सा लगता हूं मैं.

अपने गांव में ही , अजनबी सा लगता हूं मैं।

बचपन से बुढ़ापे तक का, खबर रखता हूं मैं।।

तब और अब में, हर दृश्य ही बदल गये ।

तब जो थे बच्चे , अब वृद्ध वही बन गये ।।

अब नहीं वह घर रहे , न रह गयी झोपड़पट्टियां ।

बन गया अब मयखाना , जहां थे खेलते कबड्डियां।।

जिन पेड़ों के डालों पर , हम खेलते थे डोलपत्ता।

जाने कहां गये पेड़ अब, हो गये वे लापता ।।

जिन बरगद के डालों पर ,थे दादा लगाते झूला।

जिसपर मस्ती हम करते, सब हो गये अब लापता ।।

चले गये कहां वे दिन , कहां गये वे झूला ।

शेष रह गया है अब ,बस यादों का झूला ।।

नहीं रही पहचान मेरी , बचा फलां का दादा ।

बच गया हूं गांव में, नाती पोतों का दादा ।।

जिस गांव में बचपन बिताया , बीत गयी जवानी।

बीती जहां ये जिंदगी, बन रह गयी कहानी ।।

उसी कहानी का, एक अंतिम पात्र सा लगता हूं।

अपने ही गांव में अब , अजनबी सा लगता हूं ।।

बची ही शक्ति कहा अब ,जो दौड़ लगा पाऊंगा।

क्रिकेट , फुटबॉल या कबड्ड़ीयां ,खेल ही पाऊंगा ।।

पर मानता है दिल कहां , कल्पना में खेल लेता ।

अपने जमाने के लोगों को,ख्यालों मे ढ़ूढ़ लेता ।।

फिर तो शुरू होता है , अपने जमाने का कोई खेल।

खेलाड़ी भले दुनिया में रहे नहीं,पर वे खेल लेते खेल।।

कबड्डी,चिक्का गुल्ली डंडा, कुछ भी खेल लेता हूं।

कभी तो जीत जाता ,पर कभी हार भी जाता हूं ।।

फिर भी खेल को , मैं खेल ही समझा करता हूं।

उनके मर्यादा का पालन , मैं दिल से ही करता हूं।।

मैं बृद्ध तो हुआ नहीं , और नहीं कभी बनुंगा ।

जवान ही रहा हूं ,जवान ही रहूंगा ।।

खुदा से अरज , जब भी करता हूं मै ।

अनुनय तो यही सिर्फ ,करता हूं मै ।।

गलत कभी न आप से ,कुछ कहता हूं मैं ।

अपने गांव में ही अजनवी , सा लगता हूं मैं।।

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