मानव सबकर जब थकजाता,अक्ल ठिकाने लगजाता
जब धन,बल,बुद्धि काम न आती,हो बिवस पस्त तब पर जाता।।
हो पस्त हौसला खो देता, निराशा उनपर छा जाता।
जैसाथा वैसा रहा नहीं अब,बस ढांचा केवल रहजाता।
तब बात समझ में कुछ आती,जब सारा समय निकल जाता।
सिवा हाथ मलने के अपने,पास नहीं कुछ रह जाता ।।
पढ़ते पर अर्थ को समझ न पाते,समझे भी तो गुण नहीं पाते।
बिना गुणे सब ब्यर्थ ही होता,महज एक बकवास ही होता।।
शाब्दिक तो अर्थ समझ जाता, यादों में उनको रख लेता।
घुसती जो बातें जल्द नहीं,मिहनत कर उनको रट लेता।।
पर चीज रटी रह पाती क्या,ग्रहण मस्तिष्क क्या कर पाता ?
करता पर चन्द लहमों तक केवल, मस्तिष्क से जल्द निकल जाता।।
पर गूढ़ समझ जो है लेता,निकल नहीं वह है पाता।
आजीवन उनके मस्तिष्क में,भरा पड़ा ही रह जाता।।
पर समय कभी जब है आता, तब अपना कर्ज अदा करता।
जब राह भटकने लग जाते,पथ प्रदर्शक बन जाता।।
भटक नहीं तब है पाता,गणतब्य पहुंच है जाता।
संस्कार इसे ही कहते , साथ सदा यह देता ।।
बन जाता यह पथप्रदर्शक, सत्पथ पर यह ले जाता।
यह पथ से नहीं भटकने देता,सही राह बतलाता।।
संस्कार भी चीज अजबहै, यह पूर्व जन्म की देन।
मस्तिष्क से सदा उभरता रहता,यह शाश्वत की देन।।
नहीं जरूरत बतलाने की,वह खुद ही बढ़ जाता ।
जो नहीं सोंच रखा हो कोई,सोंच उसे भी लेता ।।
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