गगन में ही चमकता चांद,ऐसा कौन कहता है?
घूंघट में सिमट एक चांद, बैठा कौन रहता है??
गगन का चांद का चेहरा, कभी घटता है बढ़ता है।
घूंघट में छिपा जो चांद, सदा ही एक रहता है।।
आती रोशनी जो आसमां से ,बादल छिपा लेता कभी।
लेकर उसे आगोश में , लुप्त कर देता कभी ।।
घूंघट में जो रहता चांद , वह बिंदास रहता है ।
दुपट्टे से छिपा मुखड़ा , करता सदा उपहास रहता है।।
मुकाबला उस चांद का, उस चांद से करना ही क्या ?
खुदा खुद ही रचा हाथों ,वहतो महज पाषाण रहता है।
अनोखा चांद घूंघट का , कला सारी लगा अपनी।
रचयिता जो रचा रचकर, अचंभित स्वयं रहता है।।
भरोसा खुद नहीं खुद पर,सदा संदेह रहता है ।
कैसे कब बना डाला , स्वयं पर गर्व रहता है ।।
नियंता तुम रचे दोनो, करिश्मा भी तुम्हारी है ।
हुस्न तेरा दिया ही है ,लगी सब कुछ ही तेरी है।।
कभी तुम क्या बना देते, समझ से जो पड़े होते ।
बना जब जी तेरा भरता, उसे खुद ही मिटा देते ।।
हुस्न तुम ही बनाया है , उसे तुम ही मिटाओगे।
हमें है देखना केवल, जो कुछ तुम दिखाओगे ।।
जिज्ञासा बनी रहती , करिश्मा को समझ पाऊं।
बनाने और मिटाने का ,तेरा मकसद समझ जाऊं।।
पर आशां नही लगता ,बातों को समझ पाना ।
बहुत राज है उनका , राजों को समझ जाना ।।