अभिलाषा.

अभिलाषा होती अनंत, पर पूर्ण सभी क्या हो पाती?

मानव मन का मात्र उपज, शायद कोई पूरा हो जाती।।

मानव मन का देन है यह , यहीं पैदा लेती है ।

फलती , फुलती यहीं सदा , और यहीं पलती है।।

इच्छायें जागृत होती , मन उद्वेलित हो जाता ।

मस्तिष्क फिर पूरा करने का, धुन में है लग जाता।।

कौन कौन सी चीज चाहिए, कहां मिलेगी यह सब।

कौन सकेगा पूर्ण इसे कर ,इसे सोचना पड़ता है सब।।

कितनें पापड़ बेले जाते, पूर्ण तभी हो पाता ।

पूरी होती जब अभिलाषा,सुकून मन को मिल पाता।।

पर कहां सुकून यह बहुत दिनों तक,मन को है दे पाता।

अगली अभिलाषा जागृतहो,मस्तिष्क उसमेंलग जाता।

सिलसिला यही चलता रहता ,अभिलाषा बढ़ती जाती।

पूर्ण-अपूर्ण का द्वन्द्व सदा ही, मानव मन होती ।।

अभिलाषा होती पूर्ण उसीका,जो कर्म अथककर पाता

लगनशीलता होती जिनमें,सफल वही हो पाता ।।

अभिलाषा प्रशस्त बनाती ,जीवन का पथ आगे बढ़ता‌।

चलती दुनियां उसके पीछे, जीवन रथ बढ़ता जाता ।।

क्रम यही रहा है बढ़ने का,बढ़ कर लोग यहांतक आये।

पर कुछ विकृत मस्तिष्क वाले,भी इसमें घुस आये ।।

बुरा बुराई कहां छोड़ता,तुम्बाफेरी तो कर ही लेता ।

अच्छों में मिलकर उनको भी, कुछ गंदा कर ही देता।।