समय जो आज गुजरा जारहा,कभी ऐसा न गुजरा था।
सारा बिश्व ही स्तब्ध , कभी क्या यह नजारा था ??
सबों में मौत का भय है, सबों की जिंदगी प्यारी ।
छिपे सब लोग हैं घर में,गजब ये दास्तां न्यारी ।।
नहीं ऐसा कभी जग में, हुआ था वाकयां पहले ।
नहीं फिर से दोबारा हो , यह लो कसम पहले ।।
मन अशांत है कितना , बाहर से शांन्ति दिखती ।
भयाकुल लोग हैं सारे , प्रकृति सो रही लगती ।।
लगता मौत का तांडव, हर ओर छाया है ।
हो भूमिगत, भयभीत मानव, खुद को छिपाया है।।
मानव का शत्रु तो पापी , कहीं पर सो रहा होगा ।
स्वजन उनके कही छिप कर ,बैठा रो रहा होगा ।।
कीड़े पतंगे खा के , बुद्धि भ्रष्ट कर डाला ।
स्वजनों का शत्रु तुम बता, यह क्या है कर डाला?
चेतना शून्य हो गये , या बची कुछ चेतना तुममें।
बची कुछ है अगर तो सोंचना, यह क्या हुआ तुमसे।।
सोंचोगे अगर निष्काम , दोषी खुद को पाओगे ।
तेरी आत्मा कोसेगी तुमको, कहीं का रह न पाओगे।।
प्रायश्चित करने योग्य भी, तुम रह न पाओगे ।
अपना मुंह दिखाने योग्य , खुद को रख न पाओगे।।
कूकृत्य इससे और ज्यादा ,हो ही नहीं सकता ।
तुम इतने गिरे हो , सर तुम्हारा उठ नहीं सकता ।।