अब चांद जा कहीं सो गया, दिन-रात चलता थकगया।
जाने कहां गयी चांदनी , घनघोर अंधेरा आ गया ।।
आती नजर में कुछ नहीं ,सर्वत्र तम का राज है ।
सद्भावना तो लुप्त हो गई,दूर्भावना अब ब्याप्त है ।।
निशाचरों का दोड़ मानों , अब धरा पर आ गया ।
भूत और बैताल का ,आधिपत्य जग पर हो गया।।
कीड़े मकोड़े भक्ष करके, खुद मकोड़ा बन गया ।
विश्वभर में फैल कर , संघार करने लग गया ।।
आहार का प्रभाव मन को ,क्या बनाता देख लो ।
बना है आदमी ही आदमी का , जानलेवा देख लो।।
यह आदमी लगता नहीं , बस आदमी का रूप है ।
कब धरेगा रूप कैसा , यह महज विद्रूप है ।।
यह बात तो कोई नई नहीं , यह युग युगों से आ रही।
बुराईयां अच्छाईयों पर , कहर बरपाती रही ।।
अच्छाईयों की जीत होती , यह कथन भी सत्य है ।
देर हो सकती कभी पर , होती कथन यह सत्य है ।।
संस्कार का होता धनी , हर भारती ही आ रहा ।
प्राचीन मेरे पूर्वजों , चीनीयों को समझाता रहा ।।
बुद्ध की बातें नहीं, भेजे में तेरे रह गया ।
भूल गये क्या ज्ञान सारा , ब्यर्थ कचरा भर गया ।।
अब भी सम्हल जा ,कर अक्ल ठिकाने,भूलजो है दिया
रे , मानवों का प्रवल शत्रु , बन के क्यो तूं रह गया ।।