अब भी संभल जा चीन

अब चांद जा कहीं सो गया, दिन-रात चलता थक गया।

जाने कहाँ गयी चांदनी , घनघोर अंधेरा छा गया ।।

आती नजर में कुछ नहीं ,सर्वत्र तम का राज है ।

सद्भावना तो लुप्त हुई, दुर्भावना बस व्याप्त है ।।

निशाचरों का दौर मानो , अब धरा पर आ गया ।

भूत औ बैताल का ,आधिपत्य जग पर छा गया।।

कीड़े-मकोड़े भक्ष करके, जानवर ही बन गया ।

उपहार कोरोना का दे, सारे जग में मातम छा दिया ।।

आहार का प्रभाव मन पर ,क्या है पड़ता, देख लो ।

इंसान ही इंसान के, पीछे पड़ा है, देख लो।।

इंसान तो लगता नहीं , बस आदमी का रूप है ।

कब धरेगा रूप कैसा , यह महज विद्रूप है ।।

बात है कोई नई नहीं , है युग-युगों से आ रही।

बुराई ने अच्छाई पर , कहर सा बरपा रही ।।

अच्छाई की पर जीत होती , यही अंतिम सत्य है ।

देर हो सकती है पर, अंधेर नहीं, ये तथ्य है ।।

संस्कार का महती धनी , भारत का हर संतान है ।

सदियों से भारत विश्व को, देता रहा सतज्ञान है।।

बुद्ध के दिए ज्ञान को, पर चीनी कहीं बिसार गये।

भूले वे शायद ज्ञान सारा, संस्कार सब बिसार गये ।।

अब भी संभल जा , चीन तू, फिर वक़्त न मिल पाएगा।

इंसानियत से प्रेम कर, सच्चा बौद्ध तब कहलायेगा।।

जरूरत क्या है?

ब्यर्थ पत्थर फेंकने की , भी जरूरत क्या है?

संदेह पर इल्जाम मढ़ने, की जरूरत क्या है??

प्रमाण जबतक न मिले, किसी बात की सच्चाई की।

बनाना बतंगर बात का , भी जरूरत क्या है ??

काम तो भरे पड़े हैं , उन्हें कुशल कर्ता चाहिए ।

अपने आप को बेरोजगार कहने,की जरूरत क्या है??

रोजगार हैं कितने पड़े , अपने शहर या गांव में ।

इसे छोड़ कर अन्यत्र जाने , की जरूरत क्या है??

चीज घर की ही भली , होती परायी चीज से ।

मिले गर घरकी सूखी रोटियां,पराठे की जरूरत क्याहै?

अपनी चीजतोअच्छी ही होती,मिठास मिट्टी की अलग।

जो स्वाद देती चीज अपनी,छप्पन भोगभी देता हैक्या?

हम संतुष्ट अपने आप में है,यह देन है धरती की मेरी।

कहते हैं लंका स्वर्ण का था,हमको गिला है क्या ??

गिला हमें है ही नहीं, शिकवा नही करते किसी का।

जो पास मेरे है, बहुत है, करना अधिक उससे है क्या?

करतें गलत हम हैं नहीं, करना नहीं हम चाहते ।

पर कोई गलत हम से करे, उसे है माफ करना क्या??

जैसा जो करे वैसा करो,यह धर्म गीता ग्रंथ का।

दुष्ट को देनी सजा ही ,धर्म नहीं है क्या ??

अत्याचार सह कर मौन रहना,अधर्म यह होता बड़ा।

चुपचाप बनकर मूकदर्शक, धर्म होता क्या ??