जानकर अनजान बन रहता.

बहुत कुछ जानकर भी आदमी, अनजान बन रहता।

भूलकर सच्चाईयों को , नादान बन रहता ।।

गलत कुछ काम करने से,दिल हरदम ही रोकता।

पर ‘अहम’ फटकार कर , रुकने नहीं देता ।।

अहम को दबाये रखना , मुश्किल बहुत ही होता।

बोलें असम्भव गर उसे, कथन सत्य सा लगता ।।

हमारी बेईमानी चोरियां, हर रोज बढ़ती जा रही ।

पर हवस भी साथ में , उतनी ही बढ़ती जा रही ।।

आजकल आदमी से आदमीयत, दूर होती जा रही ।

इन्सानियत बनकर बेचारी , सिसकती सी रो रही ।।

मानव जो कोई हो चाहे, कभी कमजोर नहीं होता।

बल और बुद्धि दोनों का , गंठजोड़ यही होता ।।

पर इन्सानियत का साथ कम, आज देते लोग हैं ।

कलियुगी मनोवृत्तियों से , प्रभावित ये सारे लोग हैं।।

नैतिकता कमजोर पड़ती , जा रही हर ओर है।

हैवानियत भाड़ी पडी , इन्सानियत की हार है ।।

बोलें समय का दोष इसको, या युग का ही प्रभाव है।

अब कैसा बदलकर रह गया, मानवीय स्वभाव है ??

बदलाव करना तो प्रकृति का, नियम होता शाश्वत।

रुक गया बदलाव ही गर ,हो गया विकास का अस्त।।

सृष्टि बिना विकास का , बढ़ कभी सकती नहीं ।

या यो कहें यह सृष्टि , चल कभी सकती नहीं ।।