(०१)
कोई लूटता रहता , लुटाता भी कोई रहता ।
मस्त दोनों ही , अपने आप में रहता ।।
पर फर्क दोनों मे , कभी कम नहीं रहता ।
याचक सर्वदा नीचे , उपर सर्वदा दाता ।।
(०२)
एक याचक को कोई दाता से ,तुलना ही क्या करना ?
सूरज को दीप दिखाने जैसा,क्या नहीं कर्म है करना??
सागर का जल लेकर, बादल देता सब नदियों को।
उन्मादित नदियों क्या नहीं चाहती,सागर कोही लय करना??
(०३)
कोई याचक कोई दाता है , कोई वाचक कोई श्रोता है।
कोई अत्याचारी कोई त्राता है, कोई शत्रु कोई भ्राता है।
दौलत का पर सभी दीवानें, ये दौलत का ही नाता है।
अव्वल भ्रष्टाचारी अब तो , सज्जन ही कहलाता है।।
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