चांद की चांदनी स्निग्ध, उतर आई धरातल पर।
तम को दूर कर अपनी प्रभा से,रौशन धरा को कर।।
जाने तम कहां भागा, चांद की चांदनी से डर।
जा छिपा होगा कहीं ,निज आबरू लेकर ।।
अंधेरा यूं नहीं भागा, विवशता आ गया उनपर।
कुटिलता जा कहीं छिपता, किसी सज्जन के आने पर।।
दुर्जन को भागना पड़ता , सज्जन के अकड़ने पर।
कहां औकात है उसकी, देख एक बार तो भिड़ कर।।
उसका काम ही चलता,डरे को ही डरा कर के ।
डट जाता अगर कोई ,तो भागता,स्वयं ही डर के।।
अन्याय के प्रतिकार जो, करते नहीं डट कर।
बढ़ावा ही उसे देते, जो खुद भागते कट कर।।
भिड़ना सीखिए अन्याय से,कफन को बांधकर सर पर।
भागेगा वही खुद आपको , डरे नजरों से देख कर ।।
बिना भय प्रीत होती ही नहीं, गये हैं विद्वजन कहकर।
कथन है सत्य शत-प्रतिशत , गये जो वे हमें कह कर।।
शीतल चांदनी में दम , बहुत ज्यादा नहीं दिखता।
पर तम भागता भयभीत हो , मुठभेड़ न करता ।।
जो चलते सत्य के पथ पर, पथिक बैजोर हैं होते।
काया कृश दिखा करती ,शक्ति के स्रोत पर होते।।
जिधर बढ़ते कदम, हैं लोग उनके साथ हो लेते ।
उनके सत्यपथ का अनुसरण , सब लोग कर लेते।।
भय भागता उनसे, उन्हें छू भी नहीं पाता ।
उनकी शक्ति अंतः की, नजर जो है उसे आता।।
तूफां देखकर उनको ,अपना पथ बदल लेता ।
उधर से वह गुजरने का,जुटा हिम्मत नहीं पाता।।
खुदा के ही दिए वरदान से , गर काम ले लेते।
कुकर्मी हम न बन पाते , घृणित अपराध न होते।।
हुई जो भूल हमसे, हम सुधारें सब उसे अब भी।
बदलेगा तभी स्वरुप ,समाज आगे बढ़े तब ही ।।