आता समझ में कुछ नहीं,किस किस को मैं छलिया कहूं।
नज़रें घुमाकर देखता क्या, हैं जितने सब को कहूं।।
दिखते सभी हैं एक जैसे, चाहे जिधर नजरें करूं।
बाएं करूं, दाये करूं , ऊपर करूं ,नीचे करूं ।।
जब गहराइयों में देखता, बस एक सा दिखते सभी।
अस्पष्ट जो दिखते थे थोड़े ,स्पष्ट वे दिखते सभी ।।
गहराइयों का हद नहीं, ऊंचाइयों का भी नहीं ।
जहां पहुंचना चाहता जो, पहुंच जाता है वही ।।
छल से भरा है दिल सबों का ,वंचित यहां कोई नहीं।
ज्यादा किसी में ,कम किसी में ,फर्क बस केवल यही।।
जिसमें भरा था छल बड़ी,कहला गये भगवान वे ।
दे नाम छलिया कोई पुकारे,हरगिज बुरा न मानते वे।
पर छल किया उसनेे नहीं,निज सर्वार्थ साधन केलिये।
छल में छिपा परमार्थ था, समाज रक्षण के लिये ।।
तब की जरूरत के लिये,जो काम करना था किये।
सब जुर्म अत्याचार से,किस ढंग से रक्षा किये ।।
समाज जो बिगड़ा पड़ा था,जोड़ा सबों को एक साथ।
टुकड़े बनें बिगड़े पढ़ें थे, सबको मिलाया एक साथ ।।
सुकर्म करनें को कहीं पर, कुछ सख्त होना धर्म है ।
जैसे शल्य-चिकित्सक कोसदा , चाकू चलाना कर्महै ।।
चाकू चला जो जिन्दगी , देते बडा वे महान होते।
चाकू चलाजो जिन्दगी, हरते भी वे क्या महान होते??