थोडा़ सोंच ले इन्सान , शान्ति से होश में आकर ।
हासिल क्या तुझे हो जायेगा , दुनियाँ को मिटाकर ।।
रचयिता तो तुझे मानव बनाया, जान बूझ कर ।
हर जीव से ज्यादा तुम्ही में , बुद्धि डालकर ।।
शिला आकर दिया क्या तूँ ,जगत में क्या किया आकर?
लगे बिध्वंस करनें में , खुद मानव को ही आकर ।।
तम तो आदमी के रूप में ही , भेड़िया बन कर ।
लेनें लगे चपेट में , आदमखोर खुद बन कर ।।
बता तूँने किया ही क्या , जगत में आदमी बनकर ?
नराधम कर्म सारे तुम किये , सारे ज्ञान को पा कर ।।
बिधाता सोंचता होगा न जानें ,क्या दिया ये कर ।
भेजा था इसे उसे जिस काम से,पर क्या किया आकर??
सुकर्म करनें को यहाँ , तुमको बनाया था ।
भला जा कर करोगे लोग का ,मकसद से बनाया था।
नहीं कुछ कर सके ऐसा , डूबे स्वार्थ में आ कर।
लिया जो ज्ञान था उसको लगाया ,पापमें आ कर।।
बिध्वंस करनें में लगा , निज ज्ञान को डाला ।
भलाई में लगाना था , बुराई में लगा डाला ।।
जगत बर्बाद करनें का , सदा तुम ध्यान में लग गये ।
कैसे हो तबाही और ज्यादा , अनुसंधान में लग गये।।
जो जीवन दे नहीं सकते , लेने में भिड़े हो क्यो ?
न कूबत है बनानें की , मिटाने में लगे हो क्यों ??
अच्छा कर्म करनें का , नहीं क्यों बात तुम करते ?
प्रवृत्ति छीन लेनें की , अधम क्यों ध्यान तुम धरते??
घृणा का भाव भर अपनें ,हृदय कलुषित कराते क्यों?
भटकों को अधिक भटका ,पाप मे डुबते हो क्यो ??
भटकों को दिखाया है , सदा से रास्ता हमने ।
सत्य ,अहिंसा पाठ , सब को भी दिया हमनें ।।
जो आवेश में होते , नहीं कुछ समझ वे पाते ।
दिखायें लाख सुन्दर रास्ता , पर चल नहीं पाते ।।
विवेक गुस्से से उनका , खत्म हो जाता ।
अच्छी बात भी कहिये ,नहीं सुनना है चाहता