मुक्तक

(अ)

चाहे तराशें लाख शीशा , हीरा तो बन पाता नहीं ।

खर को रगड़ रगड़ कर धोवे ,घोड़ा बन जाता नहीं ।।

प्रकृति कुछ को बना ,संस्कार भर कर भेजती ।

स्तर विना दीवार पर भी ,रंग चढ़ पाता नहीं ।।

(ब)

सखा जिसे हो कर्ण सरीखे ,काका संग बिदुर सा ।

भीष्म पितामह रक्षक जिनको, मिले गुरु द्रोणा सा ।।

आँखों दैखा हाल बताते ृृ रहे संग संजय सा ।

संग नही थी नीति केवल , खाया दुर्योधन मुख का ।।

(स)

बिना नीति के ऱाज न चलता , बुनियादें हिलने लगती ।

विना रीति कुछ काम न होता, हालात बिगड़ने लगती ।।

दुनियाँ भी चलती नीति से ,नियमों का पालन करती ।

गर गयी टूट नीति का बंधन,दुनियाँ कब की मिट जाती।।

(द)

मुकद्दर जो बनाते हैं , न जाने क्या बनाते हैं ।

किसी को सेज फूलों की , कुछ विन बिस्तर ही सोते हैं।।

कोई देन किस्मत की बताते ,करते कर्म की बातें कोई।

जिनको जो समझ आता , वही अटकल लगाते हैं।।

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मुक्तक.

(क)

चादनी अपनी दिखा तूँ, चाँद सब को फाँसते ।

अपना दिखा कर रूप नकली,भ्रम में सबको फाँसते।।

सच्चाई तो सबको पता,इसमें तेरा अपना नहीं कुछ ।

क्योँ मोहिनी का शस्त्र ले , डाका सबों पर डालते ।।

(ख)

दिल लगाना या चुराना ,हर आदमी की बात है।

निश्चित किये का फल मिलेगा, यह भी नहीं अज्ञात है।।

कर्तव्य जो अपना निभाते , निष्ठापूर्वक ईमान से ।

फल नहीं उनको मिले , यह असम्भव बात है ।।

(ग)

होता कठिन सच्चाई का पथ,.दुर्गम अति यह रास्ता ।

इस राह पर चलते उन्हें , भ्रष्टाचार से न वास्ता ।।

हर कदम जूझना , पड़ता उन्हें कठिनाइयों से ।

कलियुगी अभिशाप होता , आज है ये रास्ता ।।