आओ घटा सावन की आओ ,आसमान मेंं छाओ ।
धरती प्यासी पड़ी यहाँ ,आ जाओ जल बरसाओ ।।
सूख पडे हैं ताल -तिलैया , नाहर , आहर ,पोखर ।
ऊँघ रहे फसलें खेतों मे , अपना रौनक खो कर।।
कहाँ गयी तेरी काली घटायें , दिखती नहीं कही है।
धरती की चादर हरी -हरी भी, आती नजर नहीं है।।
आ जा देर बहुत हो गयी है, और न कर अब देरी ।
कितनी आँखें तरस रही , दर्शन पानें को तेरी ।।
आ जा नभ मे , आ कर छा जा , मेघा जल बरसा जा ।
बेचैनी सी छायी मन मे , आ कर तृप्त करा जा ।।
अनावृष्टि है कहीं , कहीं पर अतिवृष्टि का आलम ।
किसे सुखाना , किसे डुबाना , सिर्फ तुझे है मालुम ।।
बिना तेरे चलना दुनियाँ का ,कठिन ही नहीं असंभव।
तेरे जल से ही होता , जीवों का जीवन संभव ।।
ऐ सावन की काली घटनाएं ,छटा तुम्हारी प्यारी ।
तेरे श्यामवर्ण में दिखता मुझको ,अपना श्याम विहारी।।
आवाज मधुर बंशी की तेरी , आती मुझे कभी है ।
श्याम ,श्याम में नजर आती , पर आती ध्वनी कभी है।।
कभी कौंधती राधा का रंग ,घन से चमक दिखाती ।
तरसती नजरें उठती तो पर ,वह झट से छिप जाती ।।
रातें नशीली , मादक तेरी , भरती नशा सबों में ।
नर -नारी की बात न केवल ,अवनी के हर जीवों मे ंं।।
बहुत ही खूबसूरत रचना।
पसंद करेंपसंद करें
बहुत बहुत धन्यवाद.
पसंद करेंLiked by 1 व्यक्ति