हर पल ,हर क्षण ,जीवन का , निकला भागा है जाता।
सरपट अंतिम घड़ियों की निकट ,स्वयं पहुंचता है जाता।।
गण्तब्य कहूँ या अंत कहूँ , क्या कहूँ समझ नहीं पाता ।
नाटक का परदा का गिरना , बस दृश्य बदलना कहलाता।।
बस कलाकार है रह जाता , पर रोल बदलता है जाता ।
बदल भेष-भूषा अपना ,कुछ अन्य विधा है दिखलाता ।।
कला मे माहिर जो होते , स्वांग सही वह रच पाते ।
जीवन्त स्वांग जो रच देते , वही श्रेष्ठ हैं कहलाते ।।
पर वक्त निकलता है जाता , पलभर भी कहीं नहीं रुकता।
अपनी गति से , अपने पथ पर , अविरल बढ़ता ही जाता ।।
समय बदलता है जाता , सब दृश्य बदलते हैं जाते ।
बदल जाते हैं कलाकार , पर कला यहीं हैं रह जाते ।।
जब परदा है गिर जाता , खेल खत्म है हो जाता ।
कला की चर्चा कलाकार की ,लोगों मे है रह जाता।।
शुरू होता फिर खेल नया , कुछ नये खेलाडी आ जाते ।
कुछ तो आ कर नयी विधायें , अपना कुछ दिखला देते।।
क्रम सदा यही चलता जाता , पर खेला नहीं रुका करता।
कुछ नये खेलाड़ी आ जाते , कुछ छोड़ यहाँ से चल देता ।।
हरेक किस्म के यहाँ खेलाड़ी , विभिन्न खेल खेला करते ।
जिनकी दिलचस्पी होती जिसमेँ , वही खेल खेला करते।।
कुछ दर्शक बन कर रह जाते , देख देख कर लुत्फ उठाते।
दृष्टिकोण अपनी होती , तौल उसी सै कामेन्ट सुनाते ।।
देख-सुन कर ,कुछ करवा कर , यूँ ही समय गुजर जाता।
चुपके -चुपके क्षण अंतिम आता ,जो गुजरे ,गुजरा रह जाता।।