प्रकृति तेरी रचना को , बता क्या बोलूं ।
अथाह को थामना चाहा , बता कैसे भला थाहूं।।
अथाह सागर में तेरा , छोटा सा तिनका हूं कहीं ।
मेरी विसात ही क्या , आता नजर साहिल भी नहीं।।
कहां जाना है मुझे , मुझे पता भी ही नहीं ।
जहां तूं चाहता मुझको , बहा देता था वहां ।।
मेरे जीवन का ,तेरे हाथों के सिवा , पतवार कहां?
तेरी मर्जी के बिना , मुझे और कहीं जाना ही कहां??
फिक्र करना भी यूं ही , मेरी फितरत में नहीं ।
फ़िक्र करने की मुझे , है जरूरत भी नहीं ।।
जहां तूं चाहता , मुझे ले जा तूं वहीं ।
तुमसे कोई आरज़ू , या कोई शिकवा भी नहीं।।
तेरा उत्पाद हूं मैं , चलती भी बस ,तेरी मर्जी ।
न कोई फिक्र मुझे , न कोई अपनी मर्जी ।।
तेरे सिवाय मुझे , आता नहीं कुछ भी है नजर ।
जिधर भी देखता तूं ही तूं , आते हो नज़र ।।
सिर्फ मैं जानता , जो तुम मुझे बताते हो ।
सिर्फ देखा भी वही , जो कुछ मुझे दिखाते हो।।
नहीं कुछ चाहिए तुझको , सिवा जो देते मुझे ।
तुम्हीं तो देते सदा , जो पड़ती , जरूरत है मुझे।।
मुझे न चाहिए , जो भी दिया उससे ज्यादा ।
बची न कामना मेरी ,न रहा ही इरादा ।।
कुछ नहीं चाहिए मुझको , न जरूरत ही बची ।
प्रकृति तूने दिया सब कुछ , तूं सब कुछ ही रची ।।