बहुत चले ,घर लौट के आजा ,ओ धरती के वासी ।
ज्ञान मिला तो सोच बढ़ा ,जंगली थे हो गये पुरवासी।।
शिक्षा पा शिक्षित कहलाये, बड़ी उपाधी पाई ।
भूल गए निज संस्कृति, अंग्रेजों की ली अपनाई।।
फेंक दिया पगड़ी उतार खुद, फेंकी धोती, साड़ी ।
मिर्जयी , अचकन पसंद न आई ,कहकर ‘ब्यर्थ’ उतारी।।
रहन-सहन का ढंग बदल कर, उनका ढंग अपनाया।
श्रीमान और श्रीमती से ,मिस्टर मैडम कहलाया ।।
कंधे से गमछा फेंक दिया , लटकी गर्दन में टाई ।
पत्नी से मैडम बना दिया , उन्हें तंग वस्त्र पहनाई।।
लाली होंठों का खत्म किया ,नित गाढ़ी रंग चढ़ाई।
प्राकृतिक सौंदर्य मिला था , लुटिया खुद दिया डुबोई।।
असर गुलामी का न उतरा , बढ़ता नित चला गया ।
पाठशाला तो मृत्य हुए , स्कूलें बढ़ता चला गया ।।
सत्तर सालों में सुधर न पाते , कुछ बिगड़े और ही जाते हैं।
ढोंग रचा करते सुधार का , पर अमल न उस पर करते हैं।।
होड़ लगी दौलत पानें की , सब ब्यस्त इसी में रहते हैं।
भौतिकता की आग लगी करता, लोग लगाते रहते हैं।।
अधिकार दिया चुनकर भेजा ,वह भी कुछ नहीं किया करता।
प्रयास किया होता दिल से , कम सत्तर वर्ष नहीं होता ।।
जिसको भेजा सब मौज किया ,जी जान लगाया है किसने?
करना भी चाहा कुछ थोड़ा ,कोई कहां दिया उसको करने ।।
स्वदेशी चीजें हम अपनायें , आगे उसे बढ़ायें ।
बदलें अपनी मानसिकता , जन जन में प्रेम बढ़ायें।।
हम जगतगुरु थे कभी कहाते ,जब संस्कृति थी अपनी।
जब नकल किया पश्चिम वालों का, बची न कुछ भी अपनी।।