सब को बिगाड़ा.

जब सोंचता हूँँ हाल पर, एक टीस सा होता मुझे।
विभक्त मनुज का क्यों हुए, जिज्ञासा सदा होता मुझे।।

आदिमानव एक था बस एक जोड़ी थी बनीं ।
मानव उसी के वंश हैं ,जो भी बताते सब यही ।।

बनते गये बढ़ते गये , संख्या अधिक होती गयी ।
एक ही जोड़ी मनु से , संतानें इतनी हो गई ।।

जन्म जब लेता मनुज ,निर्मल हृदय मिलता उसे ।
काम ,क्रोध, मद,लोभ का रज,देता किये गंदा इसे।।

जिसनें भी हो दुनियाँ बनाई ,श्रेष्ठ मानव जीव बनाई।
विवेक दे सबसे अधिक ,ज्ञानी इसी जीव को बनाई।।

विवेक का उपयोग उसनें , धूर्तता से कर लिया ।
निर्मल हृदय को मूढ़ ने ,स्वयं कलुषित कर लिया।।

फँसता गया खुद गन्दगी की ,कालिमा की ढेर में ।
बाँट डाला मानवों को , जातियों की खण्ड में ।।

छोटा बड़ा की भावना , का बेरहम नें बीज बोया।
स्पृश्यता की खाई में ,समाज को ही दे डूबोया ।।

कर इसे क्या पायेगा कोई ,निदान भी इस रोग को।
घुन सा कुतरता जा रहा , सदैव सारे लोग को ।।

जल्दी नजर आता नहीं , जानें न कब तक जायेगी।
जातीयता की रुग्णता ,जा भी कभी क्या पायेगी ।।

भाग जाये रोग यह , सौभाग्य से सबलोग का ।
मानवता जग जायेगी , कल्याण हो हर लोग का ।।

एक उत्तर दें

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  बदले )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  बदले )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  बदले )

Connecting to %s