मुक्तक.

   (क)

सज्जन दुर्जन में फर्क बहुत,पर दोनों ही दुख देत।

दुर्जन आ कर दुख देतहै,सज्जन जाकर दुख देत ।।

कथन पुराना यही युगों से,कहै सदा चली आत ।

जन्म होय खुद रोत -रूलावत,मरै दारुण दुख देत।।

     (ख)

सज्जन को हरलोग सताते पर दुर्जन से खुद डरजाते।

भोला होना इस दुनियाँ में,समझें तो अभिषाप कहाते।

विषधर हो या बिन विषधारी,पर दोनों ही सर्प कहाते।

पर देख एकको लोग भागते,दूजेका दुम पकड़ नचाते।।

       (ग)

तुम ही कर्ता,तुम ही धर्ता,पर बिन कोई खुदगर्जी।

तुम्ही नचाते, दुनियाँ नाचे,जैसी तेरी होती मर्जी ।।

डोर सदा ही हाथों तेरे,तुम तो एक कुशल दर्जी।

पैंट,कुर्ता ,कोट बना दो, तेरी इच्छा तेरी मर्जी ।।

   (घ)

मधुमास आता नहीं कहीं से,यह दिलका उद्गार है।

भर जाता जीवों के दिल में,कहते बसंत बहार हैं।।

फूलों की खुशबू आ करती,जब,मादकता संचार है।

लोग विहंस पड़ते धरती पर,दिलमें भरता प्यार है।।

     (च)

प्यार का यह ढाई अक्षर,दिखता लघु पर है नहीं।

ब्यापक बडे़ ही अर्थ इनका,खोजें जहाँ पायें वहीं।।

भेजा गया है भरके इसको, हृदय में हर जीव का।

दुनियाँ न चलती आजतक ,यह अगर होता नहीं।।

         (छ)

प्यार देती प्रकृति पर , मुफ्त ही उपहार में ।

दौलत लगा थक जायेंगे ,मिलता नहीं बाजार में।।

नकली की तो भरमार है, हर जगह संसार में ।

खरीदार पायेंगे लगी , लम्बी वहाँ कतार में ।।

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