‘शीशे का जिन्हें घर हो ,पत्थर फेंकते नहीं ‘।
जो होते भ्रष्ट खुद ,भ्रष्टाचार को वे रोकते नहीं।।
भ्रष्टाचारियों की एक , बड़ी लाँबी हुआ करती ।
अन्दर एक सब होते ,बाहर से भले दिखते नहीं ।।
ये बहुरूपिये होते , अपने रुप में रहते नहीं ।
कब किस रूप में होगें ,खुद कह सकते नहीं ।।
पहने साफ सुथरे वस्त्र में ,वे दिख जाते कहीं ।
भीतर गन्दगी कितनी भरी ,ये तो दिख पाते नहीं।।
मिले मौका अगर करीब से , झाँकने को कहीं ।
आयेगी गन्दगी सारी नजर , जा कर वहीं ।।
घिनौना रूप उनका देख , जल्द यकीं होती नहीं।
छबि उनकी बनी थी जो , जल्द हटती भी नहीं।।
लगती चोट भी दिल को , सहन होता नहीं ।
श्रद्धा पर घृणा का लेप , जल्द चढ़ता नहीं ।।
दुआ देती सदा आई जिन्हें,जल्दही बददुआ आती नहीं।
होता दर्द उतना , दर्द-ए-दिल कहा जाता नहीं ।
किया भी जाये क्या , अधिकांश तो करते यही ।
चाहे रोकना कोई , पर रोक कोई पाता नहीं ।।
आज है हाल दुनियाँ की , सभी करते यही ।
सुनाना चाहते सब ही , कोई सुनता नहीं।।
बदल गये साथ दुनियाँ के सभी ,कौन बदला नहीं?
जल्द सच्चाई का पथ पर , कोई मिलता नहीं ।।
पथिक सच्चाई का जग में ,जल्द मिलता तो नहीं ।
मग काँटे भरे होते , आसान तो होते ही नहीं ।।अ