ऐ पिंजरे का प्यारा पक्षी ,मत सोंच अकेला कैद न तुम हो।
जिस मानव ने तुझे कैद किया, उससे तो काफी बेहतर हो।।
पिजरे में तो तुम दोनों ही, चाहे पिंजरा जैसा भी हो ।
हो दोनो तो एक जैसा ही, छोट बड़ा का भेद भले हो ।।
उड़ने वाले पक्षी को तो, धोखा देकर कैद किये हो ।
नहीं बिगाड़ा था कुछ तेरा , जबरन उसको बंद किये हो।।
छीनी है उनकी आजादी, तुमने कितना जुर्म किये हो ।
रे मूढ़ नही क्यों तुम सोंचा , यह कैसा कूकर्म किये हो।।
महज एक कैदी हो तुम भी , पर नहीं दर्द को समझ रहे हो।
सब गयी कहाँ संवेदना , एक पक्षी से भी गिरे हुए हो ।।
मोह ,माया ,ममता का जाल, में ऐसा तूँ फँसे हुए हो ।
कैद न जाने कब के हो गये ,नासमझी में पडे हुए हो ।।
खुद को ज्ञानी भी कहते हो ,अज्ञानी सा कर्म किये हो।
हो फँसे हुए भवजाल में , नहीं इसे पर देख रहे हो ।।
अंध मुरख सच ही है मानव , करते क्यों इन्कार इसे हो।
एक कैदी दूसरे कैदी पर, ढाते कितने जुर्म रहे हो ।।
क्यों विवेक ले कर रखा है , लेते इससे काम नहीं हो ।
कितने पावन आये थे बन, क्यों उसे अपावन किये हुएहो।।
माना पिंजरा बडा है तेरा ,पर उड़ ही पाते कितना हो?
उड़ने की क्षमता है तुममें , पर अपनों में सिमट गयेहो ।।
आ जा पिंजरा तोड़ निकल जा , क्यों क्षमता को भूल रहेहो?
मानव हो जीवों में उत्तम , क्यों पिंजरे में सिमट रहे हो ??
कल्याण करो हर जीवों का, मानव ही उसमें ना क्यो हो?
अवगत तो करवा दो उनको, जितनी उनमें शक्ति निहित हो।।